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सम्यक्त्व, संज्ञी, आहार इन चौदह अवस्थाओं को लेकर जीव में गुणस्थान जीवस्थान आदि की मार्गणा - विचारणा, गवेषणा की जाती है, उन अवस्थाओं को मार्गणा कहते हैं। मार्गणा के स्थानों को मार्गणास्थान कहते हैं। मार्गणास्थान नामकर्म, मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण दर्शनावरण और वेदनीय कर्म के औदयिक आदि भाव रूप तथा पारिणामिक भाव रूप है और गुणस्थान सिर्फ मोहनीय कर्म के औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भावरूप तथा योग के भावाभाव रूप है। १६८ ।
मार्गणा और गुणस्थान में अंतर __ मार्गणा में किया जाने वाला विचार कर्म अवस्थाओं के तरतम भाव का विचार नहीं है, किन्तु शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक भिन्नताओं से घिरे हुए जीवों का विचार मार्गणाओं द्वारा किया जाता है। जब कि गुणस्थान कर्मपटलों के तरतम भावों और योगों की प्रवृत्ति निवृत्ति का ज्ञान कराता है। मार्गणाएं जीव के विकास क्रम को नहीं बताती हैं, किन्तु इनके स्वाभाविक वैभाविक रूपों का अनेक प्रकार से पृथक्करण करती हैं। जब कि गुणस्थान जीव के विकास-क्रम को बताते हैं और विकास की क्रमिक अवस्थाओं का वर्गीकरण करते हैं। मार्गणाएं सहभावी हैं और गुणस्थान क्रमभावी है।
मार्गणाओं में जीव की गति, शरीर, इन्द्रिय आदि की मार्गणा-विचारणा, गवेषणा के साथ उनके आन्तरिक भावों, गुणस्थानों जीवस्थानों आदि का भी विचार किया जाता है।१६९ विचारणा की धारा ही ध्यान की अवस्था है। ध्यान बल से जीव चौदह मार्गणाओं द्वारा अपने स्वरूप की गवेषणा करता है।
आगम में चौदह गुणस्थानों (जीवस्थानों) का वर्णन है। उनके नाम निम्नलिखित है।१७० मिथ्यादृष्टि, सासादण सम्यग्दृष्टि, सम्यक् मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, विरताविरत, पमत्तसंयत्त, अपमत्तसंयत्त, नियट्टिबादर, अनियट्टिबादर, सूक्ष्म संपराय, उपशान्त मोहनीय, क्षीण मोहनीय, सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान। आगमेतर ग्रन्थों में गुणस्थानों के नाम कुछ भिन्न प्रतीत होते हैं किन्तु अर्थ में कोई अन्तर नहीं।
गुणस्थान के इन चौदह भेदों में पहले की अपेक्षा दूसरे में, दूसरे की अपेक्षा तीसरे में इस प्रकार पूर्व-पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवी गुणस्थान में विकास की मात्रा अधिक होती है, किन्तु दूसरा, गुणस्थान विकास की भूमिका नहीं है। वह तो ऊपर से पतित हुई आत्मा के क्षणिक अवस्थान का ही सूचक है। विकास के इस क्रम का निर्णय आत्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलंबित है। स्थिरता का तारतम्य दर्शन और चारित्र मोह शक्ति की शुद्धि की तरतमता पर निर्भर है। मोह की प्रधान शक्तियां दो ही
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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