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________________ शील आदि के पालन में तत्पर रहता है। सांसारिक विषयों में उदासीन एवं साधु-जनों का प्रशंसक होता है जिससे उसका चित्त प्रशान्त रहता है। आत्म संयम और जितेन्द्रिय की वृत्ति आ जाती है। यह परिणाम पद्मलेश्या का है। शुक्ललेश्या : इस लेश्या वाला परम धार्मिक होता है। कषाय उपशांत रहती है। वीतराग भाव सम्पादन करने की अनुकूलता आ जाती है। मन, वचन, काय की वृत्ति अत्यन्त सरल होती है। इस लेश्या के परिणाम शंख के समान श्वेत वर्ण जैसे होते हैं। तेजो, पद्म और शुक्ल ये तीनों ही शुभ लेश्याएं ध्यान में सहायक हैं। अतः सतत इन्हीं का आचरण करना चाहिये। कृष्णादि छहों लेश्याओं की पारिणामिक स्थिति, सरेस के डालने से रंग पक्का और स्थायी होता है, वैसे (कर्मबन्ध की स्थिति) ही दृढ़ होती है। परिणाम विशेष का नाम ही लेश्या है। इसलिये जामुन खाने के इच्छुक पुरुषों के दृष्टान्त द्वारा उन उन पुरुषों के अपने अपने तीव्र, मन्द, मध्यम या परिणाम वाले के समान उनकी लेश्या जाननी चाहिये। १६३ इन छहों लेश्याओं में से अन्तिम शुभ लेश्याएं ही ध्यान के लिये योग्य मानी गई हैं। इसलिये ध्यान और लेश्या का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। ध्यान और गुणस्थान मार्गणास्थान जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'गुणस्थान' और 'मार्गणास्थान' शब्द का उल्लेख है। आगमों में 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आया है लेकिन 'जीवस्थान' अथवा 'भूतग्राम' शब्द के द्वारा गुणस्थान के अर्थ को अभिव्यक्त किया गया है और जीव स्थान की रचना का आधार कर्मविशुद्धि माना है। १६४ अभयदेव सूरि ने भी जीव स्थानों (गुणस्थानों) को ज्ञानावरण आदि कमों की विशुद्धि से सम्पन्न कहा है। १६५ आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवों को गुण कहा है। इसलिये आगमगत 'जीवस्थान' शब्द के लिये 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों एवं कर्मग्रन्थों में किया गया है। उनका कथन है कि दर्शन मोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन भावों को सर्वज्ञ सर्वदर्शियों ने 'गुणस्थान' इस संज्ञा से निर्दिष्ट किया है।१६६ संक्षेप, ओघ, सामान्य, जीवसमास, ये चारों शब्द गुणस्थान के समानार्थक हैं। १६७ जीवस्थान, मार्गणा स्थान और गुणस्थान यद्यपि ये तीनों जीव की अवस्थायें हैं, फिर भी इनमें यह अन्तर है कि जीवस्थान जाति -नाम-कर्म, पर्याप्त नाम कर्म और अपर्याप्त नामकर्म के औदयिक भाव हैं। मार्गणा का अर्थ है अनुसंधान, खोज, विचारणा आदि। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, संयम, ज्ञान, दर्शन, लेश्या, भव्य, २९६ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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