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होती है। इसीलिये वह तीव्र क्रोधादि कषाय को करने वाला होता है। धार्मिक आचार - विचारों से सर्वथा शून्य होता है एवं सदैव कलह, परनिन्दा, ईर्ष्या, क्लेश, राग, द्वेष, शोकग्रस्त आदि में रत रहता है। स्वेच्छाचारी, इन्द्रिय विषयों में रत रहनेवाला, मायावी, लोभी, दंभी, मन वचन काय में संयम न रखनेवाला होता है। काजलादि के समान कृष्ण वर्ण के लेश्या जातीय पुद्गलों के संबंध से आत्मा में ऐसे परिणामों का होना स्वाभाविक
नीललेश्या : अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या पद्गलों से आत्मा में ऐसा परिणाम उत्पन्न होता है कि जिससे द्वेष, ईर्ष्या, असहिष्णुता, छल कपट आदि होने लगते हैं। निर्लज्जता, कामुकता, कृत्याकृत्य की विवेकहीनता आ जाती है। विषयों के प्रति उत्कट लालसा होती है। इन परिणामों को नील लेश्या कहते हैं। इस लेश्या के परिणाम वाला दूसरों को ठगने में चतुर, धनधान्यादि के संग्रह में तीव्र लालसा रखनेवाले लोभी, कृपण आदि वृत्ति से युक्त होता है। इसके काषायिक परिणाम मन्दतर होते हैं।
कापोत लेश्या : कापोत लेश्या वाले के परिणाम कबुतर के गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के पुद्गलों जैसे होते हैं। कापोत लेश्या वाले के परिणाम तीव्र तो होते हैं लेकिन कृष्ण और नील लेश्या वालों की अपेक्षा कुछ सुधरे हुए होते हैं। फिर भी दूसरों की निन्दा, चुगली आदि करने की ओर उन्मुख रहता है, स्वप्रशंसा और परनिंदा करने में चतुर होता है। अहंकार ममकार में डूबे रहने के कारण मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में वक्रता ही वक्रता रहती है। किसी भी विषय में सरलता नहीं होती है और नास्तिकता रहती
ये तीनों ही अशुभ लेश्याएं आर्त ध्यानी और रौद्रध्यानी के होती हैं। अतः ये वर्जित हैं। कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं में काषायिक तीव्रतम तीव्रतर तीव्र परिणामों के होने के कारण कर्मों की स्थिति अति दीर्घ और दुःखदायी होती है।
तेजो लेश्या : तोते की चोंच के समान रक्त वर्ण के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में ऐसे परिणाम होते हैं जिससे कि विनय, विवेक, नम्रता आ जाती है, शठता और चपलता नहीं रहती है, धर्म रुचि दृढ होती है, दूसरों का हित करने की इच्छा होती है। तेजोलेश्या विकासोन्मुखी आत्मपरिणामों एवं मंदकषाय परिणामों का संकेत करती है। इस लेश्या के परिणाम वाला अपने कर्तव्य -अकर्तव्य का विवेक करने वाला होता है। दया-दान आदि कार्य करने में तत्पर रहता है।
. पालेश्या : हल्दी के समान पीले रंग के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में तेजोलेश्या वाले की अपेक्षा श्रेष्ठ परिणाम होते हैं जिससे काषायिक प्रवृत्ति काफी अंशों में कम हो जाती है। कषायों की स्थिति मंदतर हो जाती है। वह तत्त्वजिज्ञासु होता है। व्रतजैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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