________________
सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना से स्थापना लेश्या निक्षेप है। द्रव्य लेश्या दो प्रकार की मानी गई है - आगम द्रव्यलेश्या व नो आगम द्रव्यलेश्या। इनमें नो आगमद्रव्य लेश्या ज्ञायक शरीर, भावी और तद् व्यतिरिक्त रूप से तीन प्रकार की है। इनमें चक्षुइन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्कंधों के वर्णन को तद् व्यतिरिक्त नो आगम द्रव्य लेश्या कहते हैं। वह कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या छह प्रकार की है। आगम और नो आगम के भेद से भाव लेश्या भी दो प्रकार की है। इनमें कर्म -पुद्गलों के ग्रहण में कारणभूत मिथ्यात्व अविरत प्रमाद कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति होती है। अतः कषाय से उत्पन्न संस्कार का नाम नो आगम भाव लेश्या है।१५८
द्रव्य लेश्या पुद्गल-विशेषात्मक है और वह शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होती है। इसीलिये वर्ण नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुए शरीर के वर्ण को द्रव्य लेश्या कहते हैं। उसके स्वरूप के बारे में मुख्यतया तीन मत हैं१५९ १. कर्म-वर्गणानिष्पन्न, २. कर्म-निष्यन्द (बध्यमान कर्म प्रवाह रूप) और ३. योगपरिणाम। लेश्या - द्रव्यकर्मवर्गणा से बने हुए होने पर भी वे ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से भिन्न नहीं हैं, जैसे कि कार्मण शरीर। लेश्या द्रव्य बध्यमान कर्म प्रवाह रूप होने से चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्यन्द न होने के कारण लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। तेरहवें गुणस्थान तक भावलेश्या का सद्भाव समझना चाहिये। इसलिये योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है। भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है और यह परिणाम संक्लेश एवं योग से अनुगत है। संक्लेश का कारण कषायोदय है। इसीलिये कषायोदयानुरंजित योग प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं१६० द्रव्य और भाव लेश्या के साथ ध्यान का गहरा संबंध है। इसलिये चार ध्यानों में से प्रथम आर्तध्यानवर्ती के प्रथम तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं। किन्तु उनमें कषायोदय के अतिसंक्लिष्ट भाव नहीं होते। परन्तु रौद्रध्यान के ये ही तीन अशुभ लेश्याएं (कृष्ण, नील, कापोत) होने पर भी तीव्र संक्लेश वाली होती हैं। धर्म ध्यान में स्थित आत्मा के पीत, पद्म और शुक्ललेश्या शुभ परिणामवाली होती हैं। वे क्रमशः अधिकाधिक विशुद्धिवाली होती हैं क्योंकि उनमें कषायों का उदय मन्द मन्दतर मन्दतम होता है जिससे धर्मध्यान की प्राप्ति संभव ही है। शुक्लध्यान के प्रथम दो ध्यान के प्रकार शुक्ललेश्या वाले होते हैं, तीसरा भेद परमशुक्ललेश्या में होने से स्थिरता गुण के कारण मेरू को जीतने वाला होता है और अंतिम शुक्ल ध्यान का भेद लेश्यारहित होता है।१६१
इन छह लेश्याओं की पारिणामिक स्थिति निम्नप्रकार की है-१६२
कृष्ण लेश्या - कृष्णलेश्या वाले के परिणामों में कषायों की तीव्रतम स्थिति २९४
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
२९४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org