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काययोग का निरोध करने वाले सयोगी केवली को अथवा शैलेशी अवस्था वाले अयोगी केवली को चित्त (मनोयोग) नहीं होता फिर भी ऊपर बतायी हुई सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती और व्युपरत क्रिया अप्रतिपाती अवस्था निम्न कारणों से ध्यान कहलाती है - १. पूर्व प्रयोग होने से, २. कर्मनिर्जरा का हेतु होने से, ३. शब्द के अनेक अर्थ होने से और ४. जिनेन्द्र का आगम वचन होने से। इनका स्वरूप इस प्रकार है - 'पूर्व प्रयोग' में कुम्हार के चक्र का भ्रमण है। चक्र घुमानेवाले दण्ड की क्रिया बंद होने पर भी पूर्व प्रयोग के कारण बाद में दण्ड के बिना भी चक्र चाल ही रहता है, इसी प्रकार मनोयोग आदि का निरोध होने पर भी आत्मा का ज्ञानोपयोग चालू ही रहता है और उसमें भाव मन होने के कारण वह ध्यान रूप है। 'कर्म निर्जरा' सूक्ष्म क्रिया और साच्छिन्न क्रिया को ध्यान कहने का कारण क्षपक श्रेणी है। क्षपक श्रेणी में घातिकों का क्षय करने वाला 'पृथक्त्ववितर्क-सविचार, एकत्व वितर्क अविचार' ध्यान है। 'शब्द के कई अर्थ' एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ ध्यान शब्द का अर्थ 'उपयोग' है। 'ध्यै' धातु से बने ध्यान शब्द के 'स्थिर चिन्तन', 'कायनिरोध', और 'अयोगी अवस्था' आदि अनेक अर्थ होते हैं। इसलिये सूक्ष्म क्रिया और समुच्छिन्न क्रिया की अवस्था ध्यान स्वरूप ही है। 'जिनेन्द्र कथित आगम वचन' जिनागम वचन के अनुसार जिन का ध्यान ध्यान रूप ही है। आत्मा, कर्म, ध्यान एवं अतीन्द्रिय पदार्थ सर्वज्ञ वचन से ही जाने जा सकते हैं; तर्क से नहीं।१५७ तुलनात्मक विवरण
ध्यान और लेश्या आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप स्फटिक मणि के समान निर्मल है। लेकिन कषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति के द्वारा होने वाले उसके भिन्न-भिन्न परिणामों को - जो कृष्ण-नील-कापोत आदि अनेक रंगवाले पुद्गल - विशेष के प्रभाव से होते हैं - लेश्या कहते हैं। कषाय और योग ही मुख्य कर्म बन्धन के कारण हैं। प्रकृतिबंध और प्रदेशबन्ध का संबंध योग से है ओर स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का कषाय से है। कषाय के कारण ही आत्मा में लेश्या द्वारा चारों प्रकार के बंध होते हैं। जब कषायजन्य बंध होता है, तब लेश्याएं कर्मस्थिति वाली होती हैं। किन्तु अकेले योग में स्थिति और अनुभाग नहीं होता जैसे कि तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों के ईर्यापथिक क्रिया होने पर भी उनमें स्थिति, काल, और अनुभाग नहीं होता। कषायों के तरतम भावों के कारण ही अशुद्धतम, अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम, जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, मन्दतम, मंदतर, मन्द, तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, आदि विविध प्रकार से भाव लेश्या का वर्गीकरण किया गया है। शास्त्र में लेश्या के दो प्रकार हैं - द्रव्य - लेश्या और भावलेश्या। नाम और स्थापना को जोड़कर लेश्या के चार प्रकार भी वर्णित है। 'लेश्या' यह नामलेश्या है।
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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