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सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीव को स्पष्ट एवं असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है। क्योंकि उस समय मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता। इसलिये जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्व गुण व्यक्त होता है।
दृष्टि की निर्मल स्थिति को 'सम्यक्त्व' कहते हैं। 'सम्यक्त्व' की मुद्रा प्राप्त किये बिना मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है। 'सम्यग्दर्शन' की प्राप्ति के बाद ही ध्यान की योग्यता प्रारंभ होती है। इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव का स्वरूप - धर्म श्रवण करने की श्रद्धा, धर्म के प्रति प्रीति, गुरु आदि की नियमित परिचर्या करना है। १५३
चारित्र (चारित्री) चारित्र का अर्थ समता है। सम्यग्दर्शन के बाद ही श्रावक और श्रमण क्रमशः बारह व्रतों की आराधना और पांच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति की सम्यक् साधना से विकासोन्मुखी बनते हैं। देशविरति श्रावक ध्यान का तीसरा अधिकारी है और सर्वविरति श्रमण चतुर्थ अधिकारी है।१५४ अप्रमत्त अवस्था ही ध्यान की अवस्था है। प्रमादी साधक कभी भी ध्यान नहीं कर सकता। अप्रमत्त साधक ही श्रेणी - उपशम और क्षपक श्रेणी द्वारा ध्यान में विकास करते हुए कर्मक्षय करके सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं। ध्यान के सोपान
आगमानुसार ध्यान के दो सोपान माने गये हैं - छद्मस्थ का ध्यान और जिन का ध्यान। मन की स्थिरता छद्मस्थ का ध्यान जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और जिन का ध्यान काया की स्थिरता है।१५५ इसलिये योगनिरोध जिन का ध्यान है। जिन्होंने स्वरूपोपलब्धि में बाधक राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, आदि भावकों को एवं ज्ञानावरणादि रूप द्रव्यकर्मों को जीत लिया है, उन्हें जिन छमस्थ के सुस्थिर मन को ध्यान कहते हैं वैसे ही केवलज्ञानी की काया का सुस्थिर होना ध्यान कहलाता है।१५६ यहाँ 'ध्यान' शब्द का अर्थ निश्चलता है फिर चाहे वह मन की निश्चलता हो या काया की निश्चलता हो, दोनों ही ध्यान स्वरूप हैं।
तीसरे शुक्लध्यान के समय सूक्ष्म काययोग होने से 'काय निश्चलता' स्वरूप ध्यान होगा, किन्तु चौथे शुक्लध्यान के समय सर्व योगों का सर्वथा निरोध होने से (अयोगी अवस्था होने से) काय स्थिर करने का कार्य ही नहीं तो फिर ऐसी अवस्था में ध्यानरूपता कैसे? अनुमान प्रयोग से इसमें ध्यानरूपता सिद्ध होती है, क्योंकि अनुमान में पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त होते हैं वैसे ही चार हेतुओं द्वारा अनुयोग प्रयोग से ध्यानरूपता सिद्ध की जाती है। 'भवस्थ केवली' की सूक्ष्म क्रिया एवं व्युपरत - समुच्छिन्न - व्यवच्छिन्न क्रिया ये दोनों ही क्रिया ध्यान स्वरूप ही है।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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