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अनिवृत्तिकरण
अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेष की दुर्भेद्य गांठ टूटने पर जीव के परिणाम अधिक शुद्ध होते हैं, उस समय अनिवृत्तिकरण होता है। इस परिणाम को प्राप्त करने पर जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना नहीं लौटता है। इसीलिये इसका नाम अनिवृत्ति करण है। तीनों ही करण की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस अनिवृत्तिकरण नामक परिणाम के समय वीर्य समुल्लास -सामर्थ्य भी पूर्व की अपेक्षा अधिक बढ़ जाता है। अन्तरकरण
अनिवृत्तिकरण की जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति बतलाई गई है, उस स्थिति का एक भाग शेष रहने पर 'अन्तर करण' की क्रिया शुरू होती है - अनिवृत्तिकरण के अन्त समय में मिथ्यात्व मोहनीय के कर्मदलिकों को आगे पीछे कर दिया जाता है। कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आनेवाले कर्म-दलिकों के साथ कर दिया जाता है और कुछ को अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त काल ऐसा हो जाता है कि जिसमें मिथ्यात्व मोहनीय का कोई कर्मदलिक नहीं रहता। अतएव जिसका आबाधाकाल पूरा हो चुका है - ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दो विभाग हो जाते हैं। एक विभाग वह है, जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदय में रहता है और दूसरा वह जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहूर्त बीतने पर उदय में आता है। इनमें से पहले विभाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे को मिथ्यात्व की द्वितीय स्थिति कहते हैं। अन्तरकरण क्रिया के शुरू होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त तक तो मिथ्यात्व का उदय रहता है, पीछे नहीं रहता है। क्योंकि उस समय जिन दलिकों के उदय की संभावना है, वे सब दलिक अन्तकरण की क्रिया से आगे और पीछे उदय में आने योग्य कर दिये जाते हैं।
अनिवृत्तिकरण काल के बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। औपशमिक सम्यक्त्व का समय पूर्ण होने पर जीव के परिणामानुसार तीन पुंज होते हैं - शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्ध शुद्ध। इनमें से कोई एक अवश्य उदय में आता है। परिणामों के शुद्ध रहने पर शुद्ध पुंज उदय में आता है, उससे सम्यक्त्व का घात नहीं होता। उस समय प्रगट होने वाले सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। जीव के परिणाम अर्द्ध विशुद्ध रहने पर दूसरे पुंज का उदय होता है और जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है। परिणामों के अशुद्ध होने पर अशुद्ध पुंज का उदय होता है और उस समय जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
औपशमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा में जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द वाला होता है। औपशमिक
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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