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यथाप्रवृत्ति करण
जीव अनादि काल से संसार में घूम रहा है और तरह-तरह से दुःख उठा रहा है। जिस प्रकार पर्वतीय नदी में पड़ा हुआ पत्थर लुढ़कते -लुढ़कते इधर-उधर टक्कर खाता हुआ गोल और चिकना बन जाता है, उसी प्रकार जीव भी अनन्तकाल से दुःख सहते सहते कोमल शुद्ध परिणामी बन जाता है। परिणाम -शुद्धि के कारण जीव आयु कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम जितनी कर देता है। इस परिणाम को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण वाला जीव रागद्वेष की मजबूत गांठ तक पहुंच जाता है। किन्तु उसे भेद नहीं सकता, इसको ग्रंथिदेश प्राप्ति कहते हैं। कर्म और रागद्वेष की यह गांठ क्रमशः दृढ और गूढ रेशमी गांठ के समान दुर्भेद्य है। यथाप्रवृत्तिकरण अभव्य जीवों के भी हो सकता है। कों की स्थिति कोड़ा -कोड़ी सागरोपम के अन्दर करके वे जीव भी ग्रन्थिदेश को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उसे भेद नहीं सकते। अपूर्व करण
जब कर्मों की इस प्रकार से मर्यादित कालस्थिति हो जाती है तब जीव के समक्ष एक अभिन्न अन्थि आती है। तीव्र रागद्वेष परिणामस्वरूप यह ग्रन्थि होती है। उस ग्रन्थि का सर्जन अनादि कर्म परिणाम द्वारा होता है। अभव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण से ज्ञानावरणादि सात कमों की दीर्घ स्थिति को क्षय करके अनन्त बार इस "ग्रन्थि" के द्वार पर आते हैं। किन्तु ग्रन्थि की भयंकरता देखकर ग्रन्थि को भेदने की कल्पना भी नहीं कर सकते तो भेदने का पुरुषार्थ दूर रहा, वह तो वहाँ से ही पुनः लौट जाता है और संक्लेश भावों में फंस जाता है। संक्लेश भावों के कारण पुनः कमों की स्थिति उत्कृष्ट बांध लेता है। भव्य जीव भी अनन्त बार ग्रन्थि प्रदेश के द्वार पर आकर उसकी भयंकरता को देखकर वापिस लौट जाता है। किन्तु जब भव्य जीव जिस परिणाम से रागद्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़कर लांघ जाता है; उस परिणाम को अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरण भव्यात्मा के जीवन में दो बार होता है। पहले अपूर्वकरण का फल ग्रन्थि भेद और भी अपूर्वकरण का फल सम्यग्दर्शन है तथा दूसरा अपूर्वकरण श्रेणी रोहण के समय है। अतः अपूर्वकरण दो हैं - ग्रन्थिभेद जन्य और उपशम क्षपक श्रेणी भावी।
इसे 'अपूर्वकरण' कहने का कारण इसमें स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुण संक्रमण और अपूर्व स्थिति बंध ऐसे पांच कार्य अपूर्व होते हैं, जो पूर्व कभी हुये नहीं थे। इन पांच "अपूर्व" अध्यवसायों का आगे वर्णन करेंगे। अपूर्वकरण का परिणाम जीव को बार बार नहीं आता, कदाचित ही आता है, इसलिये इसका नाम अपूर्वकरण है। यथाप्रवृत्तिकरण तो अभव्य जीवों को भी अनन्त बार आता है। किन्तु अपूर्वकरण भव्य जीवों को भी अधिक बार नहीं आता।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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