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________________ विनय नम्रता गुण सम्पन्न, सत्पथगामी, कष्ट सहिष्णु, समभाव गुण सम्पन्न, निंदक कार्यवर्जित आदि गुणों से युक्त आचरण ही सदाचरण है। १४७ आगम में तप के अनेक प्रकार बताये हैं। शरीरशुद्धि , चित्तशुद्धि के लिये कषाय, विषय रहित होकर तप करना ही वास्तविक तप है। उपवास का अर्थ आत्मा में वास करना है। 'अनाहार' (विदेह) पद की प्राप्ति के लिये विवेक एवं स्वशक्ति अनुसार तपाराधना करना ही श्रेयस्कर है। जिससे दुर्ध्यान उपस्थित न हो, योगों को हानि न पहुंचे, इन्द्रियाँ क्षीण न हों ऐसे सद् विचारपूर्वक तप करना चाहिये। कम खाना, गम खाना और नम जाना तप ही है। रसविजेता बनकर इच्छा निरोध करना तप है। जिससे स्वस्वरूप की प्राप्ति होकर शीघ्र सिद्धत्व की प्राप्ति होती है।१४८ इस प्रकार 'पूर्व सेवा' के रूप में योगारोहन के सोपान बताये हैं। 'पूर्व सेवा' के उपाय से मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जीव दो बार ही बांधता है। ऐसी अवस्था को जैन पारिभाषिक शब्द में 'द्विबन्धक' कहते हैं और जो एक ही बार बांधता है, वह 'सकृत् बन्धक' कहलाता है। यथाप्रवृत्ति करण के विशेष प्रभाव से मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति एक बार भी बांधी नहीं जाती उस जीवात्मा की अवस्था 'अपुनर्बन्धक' कहलाती है। इस अवस्था में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। किन्तु अपुनर्बन्धक अवस्था बीज रूप होने के कारण कालान्तर में मोक्ष वृक्ष निर्माण होता ही है। १४९ क्योंकि तथाभव्यता के परिपाक से जब जीव चरम पुद्गल परावर्त में होता है तब उसे संशुद्ध चित्त की प्राप्ति होती है तथा १५० संशुद्धि चित्त वाले को ही योगबीज रूप अपुनर्बन्धक अवस्था की प्राप्ति होती है। अपुनर्बन्धक जीव तीव्र पाप भावों का बंध नहीं करता, अनासक्त भाव से व्यवहारिक और धार्मिक कार्यों में न्याय सम्पन्न रहता है। १५१ इस मार्ग पर चलने वाला ध्यान साधना का प्रथम अधिकारी आगे चलकर 'ग्रन्थि भेद' से 'सम्यग्दर्शन' को प्राप्त कर सकता है। सम्यग्दृष्टि ध्यान साधना का द्वितीय अधिकारी सम्यग्दृष्टि जीव है। भव्यात्मा सकृत्बन्धक से अपुनर्बन्धक भाव के मार्गाभिमुख मार्गपतित मार्गानुसारी गुणों द्वारा जीवन विकास के पथ पर आरूढ होकर मन्द मिथ्यात्व दशा को प्राप्त करके कालादिलब्धि द्वारा क्रमशः विकासोन्मुख बनता जाता है। कालादिलब्धि में करणलब्धि मुख्य है जिसका स्वरूप निम्न प्रकार का है - ग्रन्थि भेद -जन्य औपशमिक सम्यक्त्व अनादि मिथ्यात्वी भव्य जीवों को प्राप्त होता है। प्राप्ति के समय जीवों द्वारा यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण - ऐसे तीन करण (प्रयत्न विशेष) किये जाते हैं। उनकी प्रक्रिया निम्नलिखित है। १५२ जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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