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अपुनर्बन्धक
ध्यान के अधिकारी की प्रथम अवस्था अपुनर्बन्धक की है। इस अवस्था में जीवात्मा चरमावर्तावस्था में विद्यमान रहता है। चरमावर्तावस्था ही शुक्लपाक्षिक अवस्था कहलाती है।१४२ चरमावर्त में विद्यमान जीव के लक्षण निम्नलिखित हैं:४३ १. दुःखियों के प्रति अत्यन्त दया, २. गुणी लोगों के प्रति अद्वेष भावना और ३. सर्वत्र
औचित्य सेवन (अभेद रूप) से उचित सेवा। यह स्थिति बीज रूप है। यहीं से आत्मा विकासगामी बनता है। ग्रन्थि भेद एवं चारित्र पालन की योग्यता इसी अवस्था में होती है। जमीन में बीज बोने पर एवं हवा, जल, प्रकाश का योग मिलने पर वह विकसित होता है वैसे ही सत्तरकोड़ाकोडी सागरोपम स्थिति वाले मोहनीय कर्म का पुनः बन्ध न करने वाला अपुनर्बन्धक जीव मार्गाभिमुख मार्गपतित मार्गानुसारी गुणों के सहयोग से आगे विकास करता है। १४४ इस विकास भूमि पर आरोहन होने वाले साधक के लिये कुछ सोपान होते हैं जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्द में 'पूर्व सेवा' संज्ञा से उद्घोषित करते हैं। गुरुओं की सेवा, परमात्म भक्ति, आचार विचार शुद्धि, देवपूजा, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष वृत्ति। इन सबके समन्वित रूप को 'पूर्व सेवा' की संज्ञा दी है। १४५
माता पिता, विद्यागुरु, धर्मगुरु, कलाचार्य आदि को 'गुरु' पद के अन्तर्गत माना गया है। प्रथम माता पिता को स्थान देने का कारण वे अधिक उपकारी होते हैं। इसलिये उनका आदर सत्कार करना, आज्ञा पालन करना, उनकी निंदा नहीं करना, उन्हें पूजनीय मानना। इनके अतिरिक्त वृद्ध, ग्लान, दीन, दुःखी, रोगी, पीड़ित जन की सेवा करना, उन्हें पूजनीय मानना। सेवा कल्याणपदगामिनी है। 'सेवा' को ही जीवन मंत्र बनाना चाहिये। वह गुरुभक्ति, जिनभक्ति, और श्रुतभक्ति का आराधक बन सकता है। अपुनबंधक आत्मा गुरु को वस्त्र, पात्र, आसनादि से सम्मानित करता है, उनकी निंदा नहीं करता, सदा सर्वदा उनका गुणानुवाद ही गाता रहता है। गुरु के सम्मुख जाना, उन्हें सम्मान से आसन देना, देव, गुरु, धर्म का पूजन करना, दानादि क्रिया, वन्दनादि क्रिया, लेखन, पूजन, वाचन, स्वाध्याय आदि करना ये सभी योगारूढ होने के साधन हैं। परमात्मगुणों द्वारा स्व का चिन्तन करना ही पूजा है। आन्तरिक बुराइयों को क्रियाकांड, पूजाविधि द्वारा निर्मल बनाना योगारूढ़ के लिये बीज रूप हैं। ये सब बातें गुरु वर्ग में आती है। १४६
लोकापवाद भीरू, सरल स्वभावी, सुदाक्षिण्य, कृतज्ञता, गुणग्राही, उदारवृत्ति, समवृत्ति, व्यवहार कुशल, दोषगुणों से रहित, आलस्य का त्यागी, विवेकज्ञ, विशेषज्ञ,
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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