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में ही चेतन और अचेतन तत्त्व का अस्तित्व है। इसी में चारों गति के जीव समाविष्ट हैं। एक सूई के अग्र जितनी भी जगह शेष नहीं रही कि जहां हमने अथवा अन्य सभी योनियों के जीवों ने जन्म न लिया हो। समस्त लोकाकाश में सूक्ष्म और बादर जीव विद्यमान हैं। जीवों का प्रथम निवासस्थान निगोद है। अनन्तानन्त काल उसमें व्यतीत करने के बाद जब जीव की विकास हेतु आगे प्रगति होती है तो सूक्ष्म निगोदावस्था से निकलकर बादर में प्रवेश करते हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पतिकाय को प्राप्त करते हुए उसमें भी अनन्तानन्त काल व्यतीत करके विकलेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय को प्राप्त करते हैं। बाद में पुण्यवानी के बल से पंचेन्द्रिय में प्रवेश पाते हैं। उसमें नरक तिर्यच देव और मनुष्य बनकर जीवन का अनन्तानन्त काल व्यतीत करते हैं। उनमें जीवों की दो अवस्थायें होती हैं - भव्य और अभव्य। जिस जीव में मोक्षावस्था प्राप्त करने की योग्यता होती है उसे भव्य कहते हैं और इससे भिन्न अभव्य हैं। जीव दो पर्यायों में सतत रमण करता रहता है। १३७ स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय। चारों की गति में परिभ्रमण करना विभावपर्याय है और कर्मोपाधिरहित पर्याय स्वभाव पर्याय है। विभाव पर्याय के कारण ही जीव अनादिकाल से अचरमावर्तकाल में अनन्तानन्त भव व्यतीत करता है। इस स्थिति में स्थित जीवात्मा के अन्दर मैत्र्यादि गुण नहीं होते तथा मोक्ष के प्रति राग भाव भी नहीं होता। इस अवस्था का दूसरा नाम कृष्णपाक्षिक भी है। १३८ इस अवस्था में जीव को मोक्ष प्राप्त होता ही नहीं। भव्यात्मा में ही मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है।
'अचरमावर्त' और 'चरमावर्त' ये दोनों ही शब्द जैन परंपरा के पारिभाषिक शब्द हैं। जब तक आत्मा अन्तिम पुद्गलपरावर्तन काल में प्रविष्ट नहीं होता तब तक गाढ़ कर्मावरण के कारण जीव धर्म बोध प्राप्त नहीं कर सकता। चाहे फिर वह मंदिर में जाये, गुरु वन्दन करे, दानादि क्रिया करे, भक्ति करे किन्तु ये सारी क्रियायें ज्ञानदर्शनचारित्र लक्ष्यी न होने के कारण भव तारक नहीं बनती हैं। अचरमावर्तावस्था में ही भटकानेवाली होती हैं। अतः अचरमावर्त काल संसारवर्धक है तथा धर्म का हरण करने वाला है। १३९ __चरम आवर्त=चरम का अर्थ अन्तिम और आवर्त का अर्थ घुमाव है। प्रत्येक जीवात्मा ने इस चरमावर्तकाल में भी अनन्तानन्त पुद्गलपरावर्त पसार किये। 'तथाभव्यत्व' का उदय होते ही जीव में धर्म सन्मुख होने की योग्यता प्राप्त होती है। १४० इस अवस्था को जैन परिभाषिक शब्दावली में 'अपुनबंधक' कहते हैं।
ज्ञानियों के कथनानुसार ध्यान के अधिकारी १. अपुनबंधक, २. सम्यग्दृष्टि (सम्यग्दर्शन) ३. चारित्र आत्मा हैं।१४१ इस विभाग में देशविरति और सर्वविरति दोनों ही प्रकार के साधक आते हैं।
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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