________________
सुख ही वास्तव में सच्चा सुख है। धारणा के विषय में चित्त की एक समान परिणाम धारा को ध्यान कहा जाता है। १३१ इस स्थिति में आत्मविकास अधिक होता है। ध्यानावस्था का परिणाम प्रवाह सतत चलता रहता है। इस अवस्था को 'असंगानुष्ठान' कहते हैं।९३२ समाधि
ध्यान जब स्वरूपमात्रनिर्भास की स्थिति में पहुंचता है तब उसे समाधि कहा जाता है। ध्यान में ध्यानाकार - वृत्ति होती है, उस ध्यानाकार वृत्ति के नष्ट होते ही वह ध्यान विशेषदर्शक 'समाधि' नाम से पहचाना जाता है। परम समाधि अवस्था शुक्लध्यान के तीसरे चौथे भेद में प्राप्त होती है। १३३ आठवीं 'परा' दृष्टि समाधिनिष्ठ होती है। 'चन्द्रप्रभा' की तरह 'प्रवृत्ति' गुण के विकास 'आसंग' दोष का नाश करके अध्यात्म जीवन की उत्कृष्ट दशा को प्राप्त करता हुआ 'धर्म संन्यास' के बल से केवलज्ञान को प्राप्त करता है। इसके बाद अयोगात्मक अवस्था को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त करता
आठ दृष्टियों के लक्षण - मित्रा का मैत्री, तारा का मानसिक विकास, बला का साधन बल, दीप्रा का अन्तःकरण दीप्ति, स्थिरा में स्थिर तत्त्व भूमि, कान्ता में उज्वल साम्य, प्रभा में ध्यान ज्योति, परा में परम समाधि भाव होता है। १३५
इस प्रकार अष्टांग योग और दृष्टियां मनोनिग्रह के सर्वोच्च साधन हैं। मन के भेद
__ हेमचन्द्राचार्य एवं आचार्य तुलसी ने क्रमशः मन के चार और छह भेद बताये . है१३६ विक्षिप्तमन, यातायात मन, श्लिष्ट मन, सुलीन मन एवं मूढ़ तथा निरुद्ध मन। विक्षिप्त मन चंचल रहता है जिसके कारण यत्र-तत्र भटकता रहता है। परन्तु यातायात मन कुछ आनन्ददायक होता है। इस मन की स्थिति झूले की तरह होती है। श्लिष्ट मन स्थिर एवं आनंदप्रधान होता है। इस अवस्था की स्थिति जब अधिक स्थिर हो जाती है तो वह सुलीन मन कहलाता है। मिथ्यादृष्टि और मिथ्याचार में रमण करने वाला मन मूढ़ कहलाता है। मूढ़ मन वाले साधक ध्यान के अधिकारी नहीं बन सकते। विक्षिप्त और यातायात मन योग का प्रारंभ करने वाले साधक में होता है। श्लिष्ट और सुलीन मन अपने-अपने योग्य विषय को ग्रहण करते हैं। बाह्यालम्बन से रहित होकर केवल आत्मपरिणत में रमण करनेवाला मन निरुद्ध कहलाता है। यह अवस्था वीतरागी को ही प्राप्त है। (३) ध्यान का अधिकारी कौन?
आकाश अनन्त है। उसे दो भागों में विभाजित किया गया है-लोकाकाश और अलोकाकाशा लोकाकाश की अपेक्षा अलोकाकाश अनन्तगुणा बड़ा है। किन्तु लोकाकाश
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
२८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org