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________________ नहीं कर सकता है। इसमें सूक्ष्म बोध का अभाव होता है। मिथ्यात्वदोष की स्थिति को 'अवेद्यसंवेद्यपद्य' कहते हैं।१२२ मिथ्यात्वदोष संसार - दुःख का मूल है। इन दुःखों को सत्संग बल से पराजित किया जा सकता है और दुर्गतिनाशक कुतर्क राहु का पलायन हो सकता है।१२३ तत्त्व सिद्धि का एकमात्र साधन चित्तशुद्धि है। चित्शुद्धि योगमार्ग पर आरूढ होने वाले के लिये 'टीवादांडी' रूप है तथा योगांकुर को उत्पन्न करने वाली सर्वोत्तम भूमि है। चित्तशुद्धि ही श्रेष्ठ धर्मतत्त्व है। धार्मिक समस्त क्रियायें मनःशुद्धि के लिये ही हैं। १२४ अतः भाव प्राणायाम मनोनिग्रह का उपाय है। मित्रा आदि चार दृष्टियों में मिथ्यात्व होने पर भी चरम - पुद्गलपरावर्तभावी तथा समुचित योग्यता होने के कारण ये दृष्टियाँ मार्गाभिमुख होकर मोक्ष मार्ग का सर्जन करती हैं। क्योंकि इनमें कषाय की मंदता होती है। १२५ अंतिम चार दृष्टियां सम्यग्दृष्टि जीवों में होती है। 'सम्यग्दर्शन' प्राप्त होने के बाद 'अर्धपुद्गलपरावर्त काल में' जीव को मोक्ष प्राप्त होता ही है। १२६ प्रत्याहार ___मन को इन्द्रियों के विषयों से हटाकर स्वस्वरूप में रममाण कराना, कछुवे की तरह इन्द्रियों का गोपन करना, रागद्वेषादि भावों से रहित होकर समभाव को प्राप्त करना, ध्यानतंत्र में स्थिर स्वरूप पानाही प्रत्याहार है। १२७ इसमें 'स्थिरा' दृष्टि होने के कारण साधक 'ग्रन्थि भेदन' से 'रत्न प्रभा' की तरह आत्म प्रकाश को विकसित करता है। सम्यक्त्व (बोध) की प्राप्ति होने के कारण दुर्ध्यानों (प्रान्तियों) का क्षय करके शुभ ध्यानों का प्रारंभ करता है, जिसके फलस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाश प्राप्त करता है। १२८ धारणा किसी भी ध्येय प्रदेश पर (नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल, भृकुटी, तालु, नेत्र, मुख, कान, मस्तक) चित्त (मन) को स्थिर करना धारणा है अथवा ध्यान करने योग्य वस्तु (अरिहंत, सिद्ध, ब्रह्म, आत्मस्वरूप, सज्जनपुरुष) में मन को एकाग्र करना धारणा है।१२९ धारणा में 'कांता' दृष्टि की प्रबलता के कारण मन की स्थिरता 'ताराप्रभा' की भांति विकसित होकर 'मीमांसा' गुणों के कारण 'अन्यमुद्' दोषों का नाश करके मन की स्थिरता को उत्तरोत्तर बढ़ाता जाता है। १३० ध्यान __ योग के सातवें अंग में 'प्रभा' दृष्टि के कारण 'सूर्य प्रभा' की भांति ध्यानजन्य सुखों की प्राप्ति 'प्रतिपत्ति' गुण के विकसित होने के कारण और रुग् (आध्यात्मिक रोग) का नाश होने के कारण होती है। तत्त्वप्रतिपत्ति इस दृष्टि का लाक्षणिक गुण है। ध्यान जनित जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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