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अपानवायु है। अन्नजलादि के सेवन से उत्पन्न हुए रस को शरीर के भिन्न भिन्न प्रदेशों में पहुंचानेवाला समानवायु है। रसादि को ऊपर-ऊपर ले जानेवाला उदानवायु है और समस्त शरीर में व्याप्त रहनेवाला व्यान वायु है। इन पाँचों वायु के स्थान, वर्ण, क्रिया, अर्थ और बीज को जानकर योगी रेचक-कुम्भक और पूरक आदि प्राणायार्मों से इन पर विजय मिलाते हैं। बाहर के वायु को ग्रहण करना, श्वास है। उदरकोष्ट में रहे हुए वायु को बाहर निकालना निश्वास अथवा प्रश्वास है और इन दोनों की गति को रोकना प्राणायाम है। वह रेचक-पूरक और कुंभक के भेद से तीन प्रकार का है। और भी प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और अधर इन चार भेदों को मिलाने से प्राणायाम सात प्रकार का माना जाता है। नासिका और ब्रह्मरन्ध्र तथा मुख के द्वारा कोष्ठ (उदर) में से अत्यन्त यत्नपूर्वक वायु को बाहर निकालना रेचक प्राणायाम' कहलाता है। बाहर के वायु को खींचकर अपान (गूदा) द्वार पर्यन्त कोष्ठ में भर देना 'पूरक प्राणायाम' है और उसे नाभिकमल में कुंभ के समान स्थिर करके रोकना 'कुंभक प्राणायाम' कहलाता है। नाभि आदि स्थान से हृदय आदि में वायु को ले जाना 'प्रत्याहार प्राणायाम' है। तालु, नासिका और मुख-इन द्वारों से वायु को रोकना 'शान्त प्राणायाम' है। शान्त और कुंभक में इतना ही अंतर है कि कुंभक में पवन को नाभिकमल में रोका जाता है किन्तु शान्त प्राणायाम में ऐसा कोई नियम नहीं है फिर भी नासिकादि में पवन रोका जाता है। बाहर के वायु का पान करके उसे ऊपर खींचकर हृदय आदि में स्थापित करना 'उत्तर प्राणायाम' कहलाता है। और इससे विपरीत वायु को ऊपर से नीचे की ओर ले जाना 'अधर प्राणायाम' कहलाता है। इन प्राणायामों के रेचक प्राणायाम से उदर व्याधि एवं कफ का नाश होता है। पूरक प्राणायाम से शरीर पुष्ट एवं सर्व व्याधियाँ नष्ट होती हैं। कुम्भक प्राणायाम से हृदय कमल विकसित होकर आन्तरिक ग्रन्थियों का भेदन होता है, बल की वृद्धि होती है और वायु की स्थिरता होती है। प्रत्याहार प्राणायाम से शरीर की शक्ति और कान्ति उत्पन्न होती है। शान्त प्राणायाम से वात-पित्तकफ त्रिदोष (सन्निपातज्वर) की शांति होती है। उत्तर और अधर प्राणायाम से कुम्भक की स्थिरता होती है। प्राणायाम की साधना का उद्देश्य शरीर स्वस्थता और पवन मदत से मनस्थिरता है। मन की स्थिरता से कषाय की क्षीणता होती है। कषाय की क्षीणता होना ही भाव प्राणायाम है। जैन धर्म में द्रव्य प्राणायाम को अधिक महत्त्व न देकर भाव प्राणायाम को अधिक महत्त्व दिया है। इसमें 'दीप्रा' दृष्टि होने से आत्मबल 'दीपप्रभा' की तरह अधिक विकसित होता है। श्रवणगुण की प्राप्ति होने से उत्थान दोष का नाश हो जाता है। वैषयिक ममत्व बाह्य भाव का रेचन करना, भावों को अन्दर में पूरण करना तथा उनका स्थिरीकरण करना ही रेचक-पूरक-कुम्भक भाव प्राणयाम है।१२० ।
प्राणायाम में 'दीप्रा' दृष्टि होने के कारण धर्म भावना अधिक विकसित होती है एवं पुण्य बीज में वृद्धि होती है। २१ किन्तु चारों दृष्टियों में मिथ्यात्व होने के कारण प्रन्थिभेद २८४
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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