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इसे महाव्रत की संज्ञा दी गई है। 'वितर्क' (हिंसा झूठ चोरी मैथुन परिग्रह) जनित बाधाओं का प्रभाव यम के चिन्तन से हल्का पड़ जाता है और विघ्नों का नाश कराता है। 'वितर्क' नाम से घोषित हिंसा आदि के सत्ताइस-सत्ताइस भेद होते हैं। क्रोध, लोभ, मोह से हिंसा करना कराना और अनुमोदना ऐसे नौ भेद हुए। प्रत्येक के मृद, मध्य और तीव्र ऐसे तीन भेद होने के कारण सत्ताइस भेद होते हैं। उन प्रत्येक सत्ताइस भेदों के पुनः मृदु, मध्य और तीव्र ऐसे तीन भेद होने के कारण इक्कासी (८१) भेद हो जाते हैं। हिंसादी वितर्क' का फल अनन्त अज्ञान और अनन्त दुःख है। इनसे मुक्ति पाने के लिये जैसे जैसे यम का चिन्तन बढ़ता जाता है। वैसे वैसे अज्ञानता का गाढ़ अंधकार दूर होता जाता है। अहिंसा की साधना से जन्मजात वैरी भी मित्र बन जाते हैं। हिंसक प्राणी भी नतमस्तक हो जाते हैं। सत्यव्रत की आराधना से वचनसिद्धि प्राप्त होती है। अस्तेयव्रत की साधना से सर्व दिशाओं के रत्ननिधान उपस्थित होते हैं। ब्रह्मचर्य की साधना से वीर्य बल प्राप्त होता है। अपरिग्रह की आराधना के उत्कर्ष से पूर्व जन्म का स्मरण होता है। इसलिये अष्टांगयोग में यम को प्रथम स्थान दिया है। ११७
शौचादि नियम की आराधना से साधक को वैराग्य भावना, ममत्व त्याग, सत्त्वबल, मानसिक उल्लास, एकाग्रता, इन्द्रियजय, तथा आत्मस्वरूप को देखने की योग्यता प्राप्त होती है। संतोष से उत्तम सुख, स्वाध्याय से इष्टदेव दर्शन, तप से भिन्नभिन्न प्रकार की सिद्धियाँ तथा ईश्वर प्रणिधान से समाधि (धर्मध्यान) की अवस्था प्राप्त होती है।११८. इसलिये योगांगों में यम-नियम को प्रथम स्थान दिया गया है। जीवन विकास में ये दोनों भूमिका रूप हैं। ये दो न हो तो जीवन विकास संभव नहीं है। इन दोनों की स्थिरता के बाद ही साधक आसनादि में स्थिरता ला सकता है। सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद ही जीवन में स्थिरता आती है। आसन
आत्मजिज्ञासु साधक समाधि सिद्धि के लिये गोदोहिकासन, उत्कटासन, वीरासन, पर्यकासन, सुखासन, आदि आसनों से कायोत्सर्ग करते हैं। इसमें 'बला' दृष्टि होने से क्षेप दोष का नाश होकर शुश्रूषा प्रवृत्ति निर्माण होती है। कषाय की मन्दता 'काष्ठाग्नि' कण के समान होती है। आसन में आने वाले व्यवधानों का बल क्षीण होता जाता है और तत्त्व शुश्रुषा की प्राप्ति से कर्मक्षय नाशक अन्य साधन भी सुलभ बन जाते हैं। ११९ प्राणायाम
__ प्राणायाम के मुख्यतः दो प्रकार हैं - द्रव्य और भावा द्रव्य प्राणायाम में पवन की साधना की जाती है। पवन पांच प्रकार का है - प्राण अपान, समान उदान, और व्यान। श्वास - निश्वास का व्यापार प्राणवायु है। मलमूत्रादि एवं गर्भादि को बाहर लाने वाला जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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