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________________ (मनोनिग्रह) के आठ अंग बताये हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।११३ पतंजलि आदि आचार्यों ने भी ये ही आठ अंग स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन्हें मोक्ष के मुख्य अंग माने हैं। जैनाचार्यों ने प्राणायाम को मुक्ति में साधन नहीं माना है। अध्ययन के बिना वह असमाधि निर्माण कर सकता है। अतः जैनाचार्यों ने हठयोग के प्राणायाम का निषेध किया है। सूक्ष्म उच्छ्वास को शास्त्र कथनानुसार यतनापूर्वक करने के लिये विधान है। इसलिये यहाँ पर प्राणायाम का कथन किया जायेगा। प्राणायाम से शरीर स्वस्थता और कालज्ञान की प्राप्ति होती है। योग के आठ अंग के अनुसार हरिभद्राचार्य ने १४ आठ दृष्टियाँ मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कांता, प्रभा, और परा। आठ बोध की प्रभा (दृष्टान्त)- तृण अग्नि कण, गोमय अग्नि कण, काष्ठ अग्निकण, दीपप्रभा, रत्नप्रभा, ताराप्रभा, सूर्यप्रभा, और चन्द्रप्रभा। आठ दोष त्याग - खेद, उद्वेग,क्षेप, उत्थान, प्रांति, अन्यमुद, रुग् (रोग) और आसंग। तथा आठ गुणस्थान - अद्वेष, जिज्ञासा, शुश्रूषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति का प्रतिपादन किया है। इनमें प्रथम की चार दृष्टियां मिथ्यात्व प्रधान हैं और शेष चार सम्यक्त्वप्रधान है। ये आठों ही दृष्टियां अष्टांगों से समन्वित हैं। यम मित्रादृष्टिवाले अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, इन पांच यमों का पालन करते हैं। किन्तु उनका 'दर्शन' 'तृणाग्नि' की तरह मंद होता है। सेवा, भक्ति, प्रभु वन्दन, भगवत्स्मरणादि क्रिया के कारण दूसरों पर द्वेष भावना नहीं जागती। प्रथम दृष्टि बीज रूप होती है। यह अवस्था 'पुद्गलपरावर्त' स्थिति में आने के बाद आती है। इसलिये प्रथम दृष्टि में आन्तरिक गाढ़ मल का ह्रास हो जाता है और जीव को 'यथाप्रवृत्तिकरण' की स्थिति प्राप्त होती है। यह यथाप्रवृत्तिकरण 'अपूर्व करण' के समीप होने से आगे का मार्ग सरल बना देता है। इसलिये यम की साधना मनोनिग्रह में सहायक बनती है। सत्रह (५ महाव्रत, ५ इन्द्रियविजेता, ४ कषाय, और ३ योगों की गुप्ति) प्रकार के संयम पालक यमी कहलाते हैं।११५ नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं। इसमें तारा दृष्टि होने के कारण कषाय की मन्दता गोमयअग्नि कण की तरह होती है। उद्वेग का नाश होकर जिज्ञासावृत्ति जागती है। ११६ यम नियम को पहले क्यों लिया? अहिंसा आदि पांच यमों का सामान्यतः सभी धर्म वाले पालन करते हैं। इसलिये २८२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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