________________
दावानल में जलते हुए प्राणियों के लिये अमृतवर्षा तुल्य है, नरकद्वार की अर्गला है, मुक्ति मार्ग की दीपिका है, गुणरत्नों की खान मेरू पर्वत तुल्य है, मोक्ष मार्ग प्रदाता है, कर्म विनाशक है, सर्व सिद्धिप्रदायक है। इसलिये समता सर्वोत्कृष्ट ध्यान है। १०९ समभाव से मन को संस्कारित किया जाता है। संस्कारी मन की अवस्था ही आत्मज्ञान (स्वाध्याय) को प्राप्त कर सकती है। अतः समभाव को मन शुद्धि का उपाय बताया है। स्वाध्याय (आत्म ज्ञान)
मन की चंचलता को दूर करने के लिये आत्मज्ञान परमावश्यक है। उसके बिना व्यवहार चारित्र - तप -जप - संयमादि क्रिया व्यर्थ है। पुण्य पाप दोनों संसारवर्धक हैं। पुण्य से स्वर्ग और पाप से नर्कावास मिलता है। दोनों को छोड़ने के लिये आत्मज्ञान जरूरी है, क्योंकि वह शिववास दिलाता है। तप, जप, संयमादि क्रिया व्यवहार से कही जाती है। निश्चय से आत्मज्ञान ही मोक्ष का प्रदाता है। आत्मज्ञान की प्राप्ति स्वाध्याय से होती है। पंच परमेष्टी पद का चित्त की एकाग्रता के साथ जपना और सर्वज्ञ कथित शास्त्र को एकाग्रता एकलीनता के साथ पढ़ना ही स्वाध्याय है। जो अर्हन्त को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व के द्वारा जानता है वह आत्मा को जानता है और उसका मोह क्षीण हो जाता है। स्वाध्याय से ध्यानावस्था में जाया जाता है। ध्यान और स्वाध्याय दोनों की सम्प्राप्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है - स्वानुभव में लाया जाता है। अतः एकाग्र चित्त से पंचपरमेष्टियों के स्वरूप को स्वानुभूति में लाकर जो पंच परमेष्टी नवकार मंत्र का जप करता है, वह परम स्वाध्याय है।११० मन को एकाग्र करने के लिये सतत आत्मा से आत्मा का ही चिन्तन मनन निदिध्यासन करना चाहिये जिससे कर्म नो कर्म क्षणमात्र में नष्ट होकर परम पद की प्राप्ति हो जाती है। आत्मा के ध्यान से मन की स्थिरता अपने आप हो जाती है। धर्मध्यान शुक्लध्यान से अशुभ लेश्याओं का नाश होकर शुभ लेश्या का प्रादुर्भाव होता है। शुभ विचारों में (अध्यवसायों) में अनन्त शक्ति रही हुई है कि वह निर्वाण पद को प्राप्त करा देती है।१११ आत्मज्ञान के बिना किया हुआ शास्त्राध्ययन बंधन का कारण बनता है। शास्त्र तो जड़ है। जड़ क्रिया मन को एकाग्र नहीं करा सकती है। मन की एकाग्रता तो भेदज्ञान से है। संवर का मूल भेद विज्ञान है। पुद्गल और जीव इन दोनों को भिन्न-भिन्न समझने की प्रक्रिया ही भेदविज्ञान है। भेदविज्ञान ही सच्चा आत्मज्ञान है। जो साधक अपने को परभाव से छोड़कर स्वभाव में रमण कराता है वही केवलज्ञान को प्राप्त करके परम पद को पा लेता है। ११२ इसलिये आत्मज्ञान ही मनोनिग्रह का मुख्य उपाय है। योगाष्टांग एवं दृष्टियां
कर्म क्षय करने में भावों की शुद्धि होना प्रधान कारण है। भावशुद्धि मनःशुद्धि में सहायक है। क्योंकि मनःशुद्धि मोक्षमार्गप्रकाशक दीपिका है। इसलिये मनःशुद्धि जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
२८१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org