SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और छह आभ्यन्तर) क्षय किया जाता है। इस प्रकार पुनः पुनः चिन्तन करना निर्जरा भावना है। लोक भावना में, १४ राजू लोक, जो षड् द्रव्यात्मक हैं, उनमें मुख्य दो द्रव्य जीव और अजीव हैं, जीव और अजीव का संयोग संसार है और इन दोनों का वियोग मोक्ष है इन सबका चिन्तन किया जाता है। निगोदावस्था से लेकर नौ ग्रेवेयक तक जीवात्मा का परिभ्रमण सतत चलता रहता है। सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर ही जीव चारों गति के परिभ्रमण से मुक्त बन सकता है। षड् द्रव्यात्मक लोक में अनन्तानन्त कालचक्र तक इस जीवात्मा को परिभ्रमण करना पड़ता है। इस प्रकार का बार बार चिन्तन करना लोक भावना है। धर्म भावना में श्रावक के बारह व्रत और श्रमण के दस धर्म पर बार बार मनन किया जाता है।१०३ दस धर्म का पालक ही ध्यानयोग की साधना करने में समर्थ बन सकता है। सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद ही श्रावक और श्रमण ध्यानयोग की साधना का श्रीगणेश कर सकता है। अंतिम भावना 'बोधिदुर्लभ भावना' है। इसमें साधक अनादिकाल से संसार चक्र में परिभ्रमण करने के बाद दस बोलों की दुर्लभता का चिन्तन करता है। दस बोल इस प्रकार हैं ०४ १. मनुष्य जन्म मिलना दुर्लभ है, २. आर्य क्षेत्र मिलना दुर्लभ है, ३. उत्तम कुल मिलना दुर्लभ है, ४. लम्बा आयुष्य मिलना दुर्लभ है, ५. सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मिलना दुर्लभ है, ६. रोग रहित काया मिलना दुर्लभ है, ७. सन्तसमागम मिलना दुर्लभ है, ८. सूत्र सिद्धान्त का सुनना दुर्लभ है, ९. सूत्र सुनकर उस पर श्रद्धा करना दुर्लभ है और १०. संयम में पराक्रम फोड़ना दुर्लभ है। इन बारह प्रकार की भावनाओं का चिन्तन करने से मन की एकाग्रता बढ़ती है, शरीर का ममत्व घटता है और समता का प्रकाश प्राप्त होता है।१०५ क्योंकि ज्ञानियों का कथन है कि कषायरोध के लिये इन्द्रिय जय, इन्द्रियजय से मनशुद्धि और मन शुद्धि से समता और समता के प्रादुर्भाव से निर्ममत्व अवस्था तथा निर्ममत्व अवस्था से ध्यान की प्राप्ति होती है।०६ अतः मन को एकाग्र करने के लिये सतत अनित्यादि भावना का चिन्तन करना चाहिये। समता ममता को छोड़ने के लिये समता की नौका को पकड़ना जरूरी है। समता के हौज में डुबकी लगाते ही काम विष (दृष्टिविष) धोया जाता है, कषाय का ताप नष्ट हो जाता है, ममकार-अहंकार का मेल उतर जाता है, परस्पर प्रेमामृत की धारा बहने लगती है, रागद्वेष मोहादि भाव दूर होने लगते हैं, समस्त जीवों पर मैत्री भावना प्रकट होती है। भेदज्ञान की प्रक्रिया विकसित होती है, और सामर्थ्ययोग की प्राप्ति होती है। १०७ समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निःस्पृहता, वितृष्णा, प्रशम, शांति, मध्यस्थता ये सब एकार्थवाची शब्द हैं।१०८ मन शुद्धि के लिये समता का आश्रय लेना चाहिये, क्योंकि समता जन्ममरणरूप जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व २८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy