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________________ में से प्रथम की चार भावनाओं का धर्मध्यान के अन्तर्गत विचार करेंगे। अन्यत्व भावना में आत्मा से शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, परिवार, आदि सभी भिन्न वस्तुओं का चिन्तन ही अन्यत्वानुप्रेक्षा है। १०१ अशुचि भावना से शरीर को अपवित्र द्रव्यों से बना हुआ अत्यन्त दुर्गन्धमय मलमूत्रादि का घर माना जाता है। शरीर की उत्पत्ति शुक्ररुधिर के बीज से मानी जाती है। क्योंकि 'गर्भ में दस दिन तक वीर्य कलल अवस्था में रहता है। गले हुए ताम्बे और चांदी के परस्पर मिलने पर उन दोनों की जो अवस्था होती है, वैसी ही अवस्था माता के रज और पिता के वीर्य के मिलन से होती है। उसे ही कलल अवस्था कहते हैं। उसके पश्चात् दस दिन तक वह काला रहता है। उसके पश्चात् दस दिन तक वह स्थिर रहता है। इस प्रकार प्रथम मास में रज और वीर्य के मिलने से ये तीन अवस्थाएं होती हैं। दूसरे मास में बुलबुले की तरह रहता है। तीसरे मास में कड़ा हो जाता है। चतुर्थ मास में मांस का पिण्ड बन जाता है। पांचवें मास में हाथ, पैर और सिर के स्थान में पांच अंकुर फटते हैं। छठे मास में अंग और उपांग बनते हैं। सातवें मास में चमड़ा, रोम और नाखून बन जाते हैं। आठवें मास में बच्चा पेट में घूमने लगता है। नौवें और दसवें मास में बाहर आ जाता है।' शरीर रस, रक्त , मांस, मेद - चर्बी, मज्जा, वीर्य, आंत इन सप्त धातुओं से बना हुआ है। इस शरीर के अवयव इस प्रकार है - 'इस शरीर में तीन सौ हड्डियां हैं। वे सभी मज्जा नामक धातु से बनी हुई हैं। तीन सौ सन्धियां हैं। नौ सौ स्नायु हैं। सात सौ सिराएं हैं। पाँच सौ मांसपेशियां हैं। सिराओं के चार समूह है। रक्त से भरी १६ महासिराएँ हैं। सिराओं के छह मूल हैं। पीठ और उदर की ओर दो मांसरज्जु हैं। चर्म के सात परत हैं। सात कालेयकमांस खण्ड हैं। अस्सी लाख करोड़ रोम हैं। आमांशय में सोलह आंतें हैं। सात दुर्गन्ध के आश्रय हैं। तीन स्थूणा हैं - वात, पित्त, और कफ। एक सौ सात मर्मस्थान हैं। नौ मल द्वार हैं, जिनके द्वारा सर्वदा मल बहता रहता है। एक अंजलिप्रमाण मस्तक है। एक अंजलिप्रमाण मेद है। एक अंजलिप्रमाण ओज है। एक अंजलिप्रमाण वीर्य है। ये अंजलियाँ अपनी अपनी ही लेनी चाहिये। तीन अंजलिप्रमाण वसा है। तीन अंजलिप्रमाण पित्त है। (भगवती आराधना में पित्त और कफ को ६-६ अंजलि प्रमाण बतलाया गया है) ८ सेर रुधिर है। १६ सेर मूत्र है। २४ सेर विष्ठा है। २० नख हैं। ३२ दांत हैं। यह शरीर कृमि, लट तथा निगोदिया जीवों से भरा हुआ गन्दगी का घर है।' जो दूसरों के शरीर से विरक्त है, अपने शरीर पर ममत्व नहीं है, आत्मा के शुद्ध स्वरूप में लीन रहता है, उसी की अशुचित्व में भावना है। अतः अशुचिभावना से मन की एकाग्रता बढ़ती है।१०२ आस्रव भावना में पापों में प्रवेश करने के द्वारों का विचार किया जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच आस्रव द्वार हैं। इन पांच आस्रव द्वारों को गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से रोका जाता है। इनका बार-बार चिन्तन करना ही संवर भावना है। पूर्वसंचित कमों को बारह प्रकार के तप से (छह बाह्य जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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