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________________ लाने के लिये क्रोधादि कषायों से रहित एवं मन को संक्लेश, भ्रान्ति और रागादिक विकारों से रहित करके अपने मन को वशीभूत कर तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अवलोकन करने वाला ही जिनकथित पंच परमेष्टि के नामस्मरण से कषायविजेता बन सकता है। कषाय, विषय मन को जीतने का मुख्य उपाय है। सम्यग्दर्शनादि की साधना एवं ध्यान की लीनता से साधक मोक्ष में रमण कर सकता है । ९४ इसलिये कषायविजय मनोनिग्रह का मुख्य उपाय है। भावना आगम एवं अन्य ग्रन्थों में शुभ भावना (प्रशस्त भावना) को ध्यातव्य और अशुभ भावना (अप्रशस्त भावना) को हातव्य माना गया है। आगम में मोक्ष मार्ग के चार सोपान बतायें हैं - दान, शील, तप और भावना जैन धर्म की सभी साधना भावना पर आधारित है । भव और भाव ऐसे दो शब्द हैं। कन्दर्प कैल्विषी, आभियोगिक, आसुरी एवं संमोही इन अशुभ भावनाओं का आधार लेकर मन को एकाग्र नहीं किया जा सकता। अशुभ भावना के आलम्बन से भव वृद्धि होती है और शुभ के आलम्बन से भव घटते हैं। ध्यानयोग की साधना भव घटाने की साधना है व मनोनिग्रह की साधना है। इन दोनों भावनाओं के प्रभेद अनेक होते हैं । ९५ आगम में भावना को कहीं-कहीं अनुप्रेक्षा भी कहते हैं । ९६ वहाँ 'अणुप्पेहा' शब्द आध्यात्मिक चिन्तन के लिये ही प्रयुक्त किया गया है। इस शब्द के अनेक अर्थ होते हैं ९७ आत्म चिन्तन, पुनः पुनः चिन्तन, मनोनिग्रह के लिये किसी एक विषय पर केन्द्रित होना यही ध्यान की स्थिति है। आत्मा का आत्मा में रमण करना ही भावना है। भव्यात्माओं को इससे अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। इसलिये भावना को आनंद की जननी कहा है । ९८ मनोनिग्रह से शाश्वत आनंद की प्राप्ति होती है। इसीलिये भावना को मन वश करने का एकमात्र साधक बताया है। शुभ भावना ही नौका का काम करती है। नौका सागर को पार कराती है। और भावना भवसागर को पार कराती है। भावना के अनेक रूप हैं९९ चारित्र भावना, ध्यान भावना (ज्ञान दर्शन चारित्र वैराग्य), योग भावना (मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ) और वैराग्य भावना। यहाँ वैराग्यभावना को लेकर ही विचार किया जा रहा है। जीव को ध्यान सन्मुख करने के लिये मनोनिग्रह आवश्यक है। संसार भय निर्माण होते ही मन में वैराग्य भावना जाग जाती है। इसीलिये ज्ञानियों ने साधक को सावधान करते हुए कहा कि 'हे आत्मन् | तू समस्त जीवों पर मैत्री भाव रख । ममत्व का त्याग कर । निर्ममत्व का चिन्तन कर | मन का शल्य दूर करके अपनी भावों की शुद्धि के लिये अनित्य - अशरण - संसार एकत्व - अन्यत्व - अशौच- आस्रव संवर निर्जरा धर्म - लोक भावना - इन बारह भावनाओं का शरण ले जिससे तेरी चित्त शुद्धि होगी । १०० इन बारह भावनाओं जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व -२७८ Jain Education International - For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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