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स्त्री के भी तीन प्रकार है - देवांगना, मानुषी और तिर्यचनी। इनको कृत, कारित अनुमोदना से गुणा करने पर ३४३=नौ भेद होते हैं। इन्हें मन वचन काय से गुणा करने पर ९४३=सताइस भेद होते हैं। उन्हें पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर २७४५= एक सौ पैंतीस भेद होते हैं। इन्हें द्रव्य और भाव से गुणा करने पर १३५४२= दो सौ सत्तर भेद होते हैं। इनको आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से गुणा करने पर एक हजार अस्सी भेद होते हैं। इनको अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायों से गुणा करने पर १०८०४१६= सत्रह हजार दो सौ अस्सी भेद होते हैं। इनमें अचेतन स्त्री के सात सौ बीस भेद जोड़ने पर अट्ठारह हजार भेद होते हैं। ये सब विकार के भेद हैं। इन विकारों को त्यागने से शील के अट्ठारह हजार भेद होते हैं। इन भेदों को दूसरे प्रकारों से भी गिनाया जाता है, जैसे कि पृथ्वीकायादि आरंभ त्याग आदि १८००० हैं - पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ये पाँच स्थावरकाय तथा तीन विकलेन्द्रिय - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव और अजीव इन दस भेदों का आरंभ, समारंभ, हिंसा न करना यह शीलांग कहलाता है। इन दस प्रकार के आरंभ त्याग, क्षमा, मुत्ती (निर्लोभिता), आर्जव (ऋजुता), मार्दव (मृदुता), लाघव, सत्य, संयम, तप, अकिंचनता (अपरिग्रह),
और ब्रह्मचर्य इन दस प्रकार के यति धर्म को संभालते हुए करना है। १०x१०=सौ शीलांग हुए। इन्हें पाँच इन्द्रियों के साथ गुणा करने पर १००४५= पाँच सौ भेद होते हैं। इन्हें आहारादि चार संज्ञाओं से गुणा करने पर ५००x४ = दो हजार शीलांग होते हैं। इनको मन, वचन काय से गुणा करने पर २०००४३= छह हजार शीलांग होते हैं। इन्हें कृत कारित अनुमोदना इन तीन भेदों से गुणा करने पर ६०००४३=अट्ठारह हजार शीलांग होते हैं।९० इसके लिये संक्षिप्त सूत्र है - 'आय कइ संयोग' = (आरंभ १० x यति धर्म १० x करण ३ x इन्द्रिय ५ x संज्ञा ४x योग ३)
इस प्रकार संयमी साधक अट्ठारह हजार शीलांग रत्नों से भरे हुये चारित्र जहाज पर आरूढ होकर इन्द्रियविजेता बनता है। क्योंकि इन्द्रियों के जीते बिना कषायविजेता नहीं बन सकता है। मन को वश करने के लिये सर्वप्रथम इन्द्रियों के विषयों का निरोध करना आवश्यक है।९१ एक मन को जीतने वाला समस्त कर्म शत्रुओं को आसानी से जीत सकता है।९२ मन शुद्धि दीपिका तुल्य है। कवायविजय
इन्द्रियजन्य रागद्वेषमोहादि भव भ्रमण के कारण हैं। ये रागादि भाव मन को कभी मूढ़ करते हैं, कभी भ्रम रूप करते हैं, कभी भयभीत करते हैं, कभी आसक्त करते हैं, कभी शंकित करते हैं, कभी क्लेशरूप करते हैं, १३ मन में स्थिरता नहीं आने देते। मन में स्थिरता जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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