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________________ आठवें गुणस्थान में ध्यानयोगी आत्मा की विशिष्ट अवस्था शुरू होती है। औपशमिक या क्षायिक भावरूप विशिष्ट फल पैदा करने के लिए चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षय करना पड़ता है और वह करने के लिए भी तीन करण करने पड़ते हैं - यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। उनमें क्रमशः यथाप्रवृत्तिकरण-सातवां गुणस्थान, अपूर्वकरण आठवां गुणस्थान और अनिवृत्तिकरण रूप नौवां गुणस्थान है। जो अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं, कर रहे हैं, और आगे प्राप्त करेंगे, उन सब जीवों के अध्यवसायस्थानों (परिणाम भेदों) की संख्या असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। - इस गुण स्थान का कालमान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त प्रमाण है। इसमें सात भाग होते हैं - प्रथम भाग में देवायु को छोड़ ५८ प्रकृतियों का बंध होता है। दूसरे से लेकर छठे भाग तक निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों को छोड़कर ५६ प्रकृतियों का बंध होता है। अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में इन दो प्रकृतियों के (निद्रा, प्रचला) बंध की व्युच्छित्ति मनुष्य आयु के विद्यमान में होती है। उपशम श्रेणी पर आरोहन करनेवाले जीव नियम से चारित्र मोहनीय का उपशमन करते हैं। उपशम श्रेणि पर आरोहन करनेवाला जीव आठवें गुणस्थान के प्रथम समय में मरण नहीं करता; किन्तु द्वितीयादि समय में मरण संभव है। इसलिये निद्रा और प्रचला प्रकृति का बंध नहीं होता। क्षपक श्रेणी पर आरोहन करने वाले क्षपक नियम से चारित्र मोहनीय का क्षपण करते हैं किन्तु क्षपक श्रेणी में मरण होता ही नहीं। सातवें भाग में ५६ प्रकृतियों में से देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेंद्रिय जाति, शुभ विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय नामकर्म, वैक्रियशरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, निर्वाण नाम, तीर्थकर नाम, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरु-लघु, उपघात, पराघात, श्वासोच्छ्वास इन तीस प्रकृतियों को छोड़कर शेष २६ प्रकृतियों का बंध होता है। इस प्रकार आठवां गुणस्थान ध्यान साधक के लिये विशिष्ट प्रकार की ध्यान साधना में आरोहन कराने वाला होता है।१७८ उपशम श्रेणि का स्वरूप : जिन परिणामों के द्वारा आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशमन करता है, ऐसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत परिणामों की धारा को उपशम श्रेणि कहते हैं। इस उपशम श्रेणी का प्रारम्भक पूर्व का ज्ञाता, विशुद्ध चारित्र सम्पन्न, प्रथम तीन संहनन में से किसी भी एक संहनन नाम कर्म के उदय वाला अप्रमत्त संयत (उपशमक जीव) शुक्लध्यान के प्रथम भेद का ध्याता ही होता है और उपशम श्रेणि से गिरनेवाला अप्रमत्त संयत, प्रमत्त संयत, देशविरति या अविरति में से कोई भी हो सकता है। उपशम श्रेणि से गिरनेवाला (चारित्र ३०४ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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