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________________ तथा दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का उपशम करनेवाले की असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशम के असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे क्षपक श्रेणि के आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चरित्रमोहनीय का क्षय करने वाले की असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान वाले की असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे सयोगी केवली भगवान की असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे अयोगी केवली भगवान की असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। इस प्रकार ग्यारह स्थानों में उत्तरोत्तर निर्जरा असंख्यात गुणी असंख्यात गुणी अधिक होती जाती है। शुभलेश्या वाला, निसर्ग से बलशाली, निसर्ग से शूर, वज्रऋषभ संहननवाला, किसी एक संस्थानवाला, चौदह पूर्वधारी, दस पूर्वधारी, नौ पूर्वधारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव, नौ पदार्थों में से किसी एक पदार्थ का द्रव्य गुण और पर्याय के भेद से ध्यान करता है। इसी प्रकार किसी एक शब्द या योग के आलम्बन से द्रव्य गुण पर्याय में मेरू पर्वत के समान निश्चल चित्तवाला जीव असंख्यात गुण श्रेणी क्रम से कर्मस्कन्धों को गलाते हुए, अनन्त गुणहीनश्रेणिक्रम से कर्मों के अनुभाग को शोषित करते हुए तथा कर्मों की स्थितियों का घात करते हुए अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत करते हैं। यह द्वितीय शुक्लध्यान की अवस्था है। इस अन्तर्मुहूर्त काल के बाद शेष रहे क्षीण कषाय के काल प्रमाण स्थितियों को छोड़कर उपरिम सब स्थितियों की उदयादि गुणश्रेणिरूप से रचना करके, पुनः स्थितिकाण्डक घात के बिना अधः स्थिति गलना द्वारा ही असंख्यात गुणा श्रेणिक्रम से अविपाक निर्जरा द्वारा कर्मस्कन्धों का घात करता हुआ क्षीण कषाय के अंतिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों कर्मों का युगपत् नाश करता है । केवलज्ञान को प्राप्त करना द्वितीय शुक्लध्यान का फल है। ७९ तीसरे शुक्लध्यान का फल योग का निरोध और यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति है। कर्मबन्ध के आस्रव का निरोध हो जाने से शेष समस्त कर्मों का निर्जरा के कारण क्षय हो जाता है। क्योंकि तीसरे शुक्लध्यान में योगों का निरोध होकर मोक्ष का साक्षात्कारण यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करके चतुर्थ शुक्लध्यान (समुच्छिन्न-क्रिया अप्रतिपाती) का प्रारंभ हो जाता है। ये दोनों ही ध्यान मोक्ष प्रदाता हैं। क्योंकि इन दोनों का फल मोक्षगमन है। अयोगिकेवली भगवान जब ध्यानातिशयाग्नि द्वारा समस्त मलकलंक बंधन को जलाकर, किट्ट धातु एवं पाषाण का नाश कर शुद्धात्मा के स्वरूप को प्राप्त करते हैं। तब शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हैं। कुछ हस्व पाँच लघु अक्षरों के - 'अ, इ, उ, ऋ, लृ, के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतना ही काल शैलेशी अवस्था का है। शैलेशी अवस्था पूर्ण होने पर आत्मा में अपूर्व स्थिरता आ जाती है और सिद्धि को प्राप्त कर लेती है । ८° शैलेशी अवस्था प्राप्त करना चौथे शुक्लध्यान का फल है। इस अवस्था के प्राप्त होते ही मोक्ष निश्चित है। अतः अंतिम दोनों ध्यान मोक्ष के मुख्य कारण हैं। जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only २७३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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