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संवर निर्जरा का स्वरूप : संवर का अर्थ है आत्मा में आने वाले आस्रव द्वार को रोकना, वह संवर है । ७३ वह द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है।७४ नये कर्मों को आते हुए रोकना द्रव्य संवर है और मन वचन काय की चेष्टाओं से आत्मा में आने वाले कर्मों को, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और उत्कृष्ट चारित्रसम्पन्न ध्यानयोगी आदि इन कारणों के द्वारा निवारण करने पर आत्मा का निर्मल परिणाम ही भाव संवर है। भाव संवर के अनेक नाम हैं७५ - सम्यक्त्व, देशव्रत, सर्वव्रत, कषायविजेता एवं केवली भगवान - योगनिरोधक |
आत्मा से कर्मों के एक देश से झरने को निर्जरा कहते हैं। सब कर्मों की शक्ति के उदय होने को अनुभाग कहते हैं। परंतु उसके पश्चात् पूर्व संचित कर्मों को बारह प्रकार के तप से क्षीण एवं नीरस कर दिये जाते हैं, उसे निर्जरा कहते हैं । ७६ निर्जरा के दो भेद हैं७७ १. सविपाक निर्जरा (साधारण निर्जरा, पाकजानिर्जरा, स्वकालप्राप्त निर्जरा, अकाम निर्जरा) और २. अविपाक निर्जरा ( औपक्रमिकी निर्जरा, अपाकजानिर्जरा, सकाम निर्जरा) । इन दोनों प्रकार की निर्जरा को अनेक नामों से संबोधित किया जाता है। इनमें सविपाक निर्जरा चारों गति के जीव सतत करते रहते हैं। जीव जिन कर्मों को भोगता है; किन्तु उससे कई गुणा अधिक नवीन कर्मों को बांधता है। इसमें कर्मों का अंत होता ही नहीं है। क्योंकि कर्मबंध के हेतुओं की प्रबलता रहती है। सामान्यतः सविपाक निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, इसीलिये इसे साधारण, अकाम, स्वकालप्राप्त, पाकजा निर्जरा कहते हैं। बंधे हुए कर्म अपने आबाधाकाल तक सत्ता में रहकर उदय प्राप्त काल के आने पर अपना फल देकर झरते रहते हैं। इसलिये उसे स्वप्राप्त काल निर्जरा कहते हैं। यह निर्जरा कर्मबंध का कारण है। एक मात्र अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का कारण है क्योंकि वह बिना भोगे ही कर्म समाप्त कर देती है। अविपाक निर्जरा बारह प्रकार के तप द्वारा प्राप्त होती है। साधुओं के जैसे-जैसे उपशम भाव और तपाराधना में वृद्धि होती है वैसे वैसे अविपाक निर्जरा की वृद्धि होती है। ज्ञानी पुरुष का तप ही निर्जरा का कारण बनता है। अज्ञानी का तप कर्मबंधन का कारण है। इसलिये अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का अचूक साधन है और धर्मध्यान शुक्लध्यान ही विशेष रूप से निर्जरा का कारण है। क्योंकि ग्यारह स्थानों में ऊपर ऊपर असंख्यात गुणी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है जैसे कि७८ मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि के असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। सम्यग्दृष्टि से अणुव्रतधारी की असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। अणुव्रतधारी से सर्व व्रती ज्ञानी की असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। महाव्रती से अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करनेवाले की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। उससे दर्शनमोहनीय का क्षण -विनाश करने वाले की असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे उपशमश्रेणि के आठवें, नौवें
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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