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तो आगम में छह लेश्याएं हैं। उन्हें दो भागों में विभाजित किया गया है। - प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रथम की तीन लेश्याएं अप्रशस्त हैं। ध्यानावस्था में उनका स्थान नहीं है। शुभ
और अशुभ दोनों ही प्रकार की लेश्याओं का स्वरूप आगे बतायेंगे। ध्यान के लिंग का स्वरूप ____ आगम में लिंग के लिये लक्षण शब्द का प्रयोग किया गया है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के लिये चार-चार लक्षण दिये गये हैं। उनके नाम क्रमशः निम्नलिखित हैं - धर्मध्यान के चार लक्षण (लिंग)- आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ रुचि। शुक्लध्यान के चार लक्षण (लिंग) - अव्यथा, असंमोह, विवेक और व्युत्सर्ग। इन सभी लिंगों का स्वरूप आगे बतायेंगे। ध्यान का फल
धर्मध्यान का फल विपुल शुभ आस्रव, संवर, निर्जरा और दिव्य सुख है। ६८ यह शुभानुबन्धी होने के कारण शुभ परम्परा तक पहुंचाने वाले पुण्य बन्ध आदि फल को उत्पन्न करते हैं। अपाय विचय धर्म ध्यान का फल रागादि दोषों से उत्पन्न होने वाले चार गति के बंधन से मुक्ति एवं समस्त कर्मों से निवृत्ति है।६९ संस्थान विचय धर्मध्यान के चिन्तन से रागादि भाव नष्ट होते हैं और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है।७° शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद - 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' 'एकत्व वितर्क अविचार' से शुभास्रव, संवर, निर्जरा एवं देवलोक के दिव्य सुख का फल है परंतु वे विशिष्ट स्वरूप से उत्पन्न होते हैं। अद्भुत उच्च कोटि के पुण्य बन्ध, कर्म -निर्जरा आदि होते हैं। सबसे ऊंचे अनुत्तर विमानवासी देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। उपशम श्रेणी में चढ़े हए मुनि शुक्लध्यान से ऐसी फलोत्पत्ति के अनुसार, श्रेणी से गिरते हुए आयुष्य पूर्ण होने पर, अनुत्तर विमान में जन्म लेते हैं। प्रथम शुक्लध्यान में साधक, अतीक्ष्ण कुल्हाडी वृक्ष को शनैः शनैः काटती रहती है वैसे मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को काटता रहता है। तीन घातिकों को निर्मूल विनाश करना शुक्लध्यान का फल है और मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है। दूसरे शुक्लध्यान में भी मोह का नाश होता है। जब योगी श्रुतज्ञानोपयोग से ज्ञानावरण कर्म को रोकता है तब उसमें अर्थ संक्रान्ति, व्यंजनसंक्रान्ति और योगसंक्रान्ति का अभाव होता है। द्वितीय शुक्लध्यान का फल केवलज्ञान की प्राप्ति है। प्रथम शुक्लध्यान में उपशम और क्षपक दोनों ही श्रेणियाँ होती हैं। परन्तु द्वितीय शुक्लध्यान में केवल क्षपक श्रेणी ही होती है। इसमें आये हुए अर्थ व्यंजन और योगसंक्रान्ति का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है - अर्थ = ध्येय वस्तु, व्यंजन = वचन, शब्द, वाक्य आदि, योग = मन वचन काय ओर संक्रान्ति = परिवर्तन। इस ध्यान के फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमर सुख की प्राप्ति होती है।७२
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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