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________________ ज्ञानादि भावनाओं का स्वरूप ज्ञान भावना : राग-द्वेष- मोह से रहित होकर तटस्थ भाव से जानने की क्रिया (अभ्यास) का नाम ज्ञान भावना है। इस भावना में पाँच कार्य किये जाते हैं - १. श्रुतज्ञान में सतत प्रवृत्ति करना, २ . मन को अशुभ भाव से रोकना, ३. सूत्रार्थ की विशुद्धि, ४. भवनिर्वेद और ५. परमार्थ की समझ । ५२ दर्शन भावना : रागादि भावों से रहित होकर तटस्थ भाव से पदार्थ को देखना दर्शन भावना है। इसके शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक ये पाँच गुण हैं और शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, प्रशंसा और प्रस्तव ये पाँच दोष हैं । ५३ चारित्र भावना : रागादि भावों से रहित होकर समभाव की आराधना-अभ्यास का नाम चारित्र भावना है। इस भावना में चार कार्य होते हैं। १. आस्रवों का रोकना, २. पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा, ३. समिति गुप्ति में शुभ प्रवृत्ति और ४. ध्यान की सहजता से प्राप्ति । ५४ वैराग्य भावना : अनासक्ति, अनाकांक्षा और अभय प्रवृत्ति का सतत अभ्यास करना वैराग्य भावना है। इस भावना के पाँच कार्य है - १. सुविदित जगत् स्वभाव, २. निस्संगता, ३ . निर्भयता, ४. निराशंसता और ५. तथाविध क्रोधादिरहितता । ५५ मैत्री भावना : संसार के समस्त जीव सुखी रहें, उन्हें दुःखों की अनुभूति न हो, वे किसी भी पाप प्रवृत्ति में प्रवृत्त न हो, जगत के सभी प्राणी समान हैं, उनमें ऊंच नीच की भावना न हो, मेरे समान ही सबकी आत्मा है। इस प्रकार का सतत चिन्तन करना मैत्री भावना है । ५६ प्रमोद भावना : दोषों के त्यागी, गुणों के ग्राही, सज्जन पुरुषों के गुणों का सतत आदर करना, गुणग्राही बनना, अच्छे गुणों को ग्रहण करने में सतत प्रसन्न रहना प्रमोद भावना है। ५७ कारुण्य भावना : दीन, दुःखी, पीड़ित, कष्टित, भयभीत एवं प्राणों की भिक्षा मांगने वाले जीवों के प्रति सतत करुणा भाव रखना, उनके दुःखों को दूर करने की बुद्धि रखना, कारुण्य भावना है । ५८ माध्यस्थ भावना : निःशंकता से क्रूर कर्म करने वाले, देव, गुरु, धर्म की निन्दा करने वाले, आत्म प्रशंसालीन व्यक्ति, नीच प्रवृत्ति करने वाले जीवों के प्रति समभाव (उपेक्षा) रखना, 'माध्यस्थ' भावना है । ५९ ज्ञानादि और मैत्र्यादि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करने वाला आत्मलक्ष्यी साधक बिखरी हुई, विशुद्ध ध्यान - श्रेणी को पुनः जोड़ देता है । ६० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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