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________________ उचित देश या स्थान का स्वरूप ध्यान साधक के लिये स्त्री, पशु, नपुंसक, एवं कुशील व्यक्ति से रहित एकान्त स्थान, कोलाहलरहित, विनरहित, बाधारहित निर्जन वन, गुफा, निर्जीव प्रदेश, भूमि, शिला, तीर्थकर की जन्मभूमि, निर्वाण भूमि, केवलज्ञान प्राप्य भूमि आदि पवित्र स्थानों में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थिर रहकर ध्यान करने के लिये उचित बताया है।६१ किन्तु किसी का कहना है कि निश्चल स्थिर मन वाले साधक के लिये ग्राम, नगर, स्मशान, वन, गुफा, शून्य महल सब समान है।६२ उचित काल का स्वरूप स्थिर मन वाले साधक के लिये दिन या रात्रि के नियत समय की आवश्यकता नहीं है। जिस समय मन वचन काय का व्यापार स्थिर (स्वस्थ) हो उस समय ध्यान करना चाहिये। ध्यान करने वाले के लिये दिन, रात्रि या अन्य किसी समय का निश्चित निर्णय करने का कोई नियम नहीं है। जब मन स्वस्थ हो, उसी समय ध्यान करें।६३ मन की स्वस्थता यही काल की उचित मर्यादा है। आसनों का स्वरूप जैनागम और अन्य ग्रन्थों में ध्यान के लिये कुछ आसन निहित किये गये हैं। किन्तु कोई निश्चित आसन नहीं कि इसी में ध्यान करना चाहिये। देह को पीड़ा एवं कष्ट न हो ऐसे सहज साध्य आसन में ध्यान करने का जिनेश्वर का फरमान है। बैठे-बैठे, सोये-सोये या खड़े-खड़े किसी भी स्थिति में कायोत्सर्ग मुद्रा में या वीरासनादि आसनों में ध्यान करने का कोई नियम नहीं है। मुनियों ने किसी भी देश-काल-आसन में कर्म क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। किन्तु भगवान महावीर के विषय में मिलता है कि उन्होंने गोदुहिका आसन में केवलज्ञान प्राप्त किया था। पर ऐसा कोई नियम नहीं है कि अमुक ही आसन में कर्म क्षय होना चाहिये। जिस योग से स्वस्थता रहे उस स्थिति या मुद्रा अथवा आसन से ध्यान करना चाहिये।६४ आलम्बनों का स्वरूप एक पुद्गल पर स्थित मन के विचलित हो जाने पर धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का साधक क्रमशः वाचना, पृच्छना, परियट्टना, धर्म कहा (अनुप्रेक्षा) और क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव का सहारा लेकर पुनः मन को स्थिर करता है। इन दोनों ध्यान के चार -चार आलंबन हैं। इन आलंबनों के स्वरूप का स्पष्टीकरण आगे करेंगे। ध्यान के क्रम का स्वरूप ध्यान प्राप्ति का क्रम दो प्रकार का बताया गया है-६५ १. केवलज्ञानी आत्मा जब जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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