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स्थित होकर अपने अविकसित शुद्धस्वरूप को ध्याता है, वह आधारभूत अन्तरात्मा (अधिकरण) है। इस तरह शुद्ध नय की दृष्टि, जिसमें कर्ताकर्मादि भिन्न नहीं होते, सिर्फ अपना एक आत्मा ही ध्यान के समय षट्कारकमय परिणत होता है४८ वही ध्यान का विशिष्ट लक्षण है।
(५) जैन धर्म में ध्यान योग की व्यापक रूप रेखा (१) ध्यान योग को जानने के द्वार एवं अंग
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और रामसेनाचार्य ने आगम का सिंहावलोकन करके ध्यानयोग (धर्मध्यान और शुक्लध्यान) को यथार्थ रूप से जानने के लिये क्रमशः बारह द्वार और आठ अंगों का प्रतिपादन किया है। बारह द्वार इस प्रकार हैं-४९ १. ध्यान की भावना, २. ध्यान के लिये उचित देश या स्थान, ३. ध्यान के लिये उचित काल, ४. ध्यान के लिये उचित आसन, ५. ध्यान के लिये आलम्बन, ६. ध्यान का क्रम (मनोनिरोध आदि), ७. ध्यान का विषय-ध्येय, ८. ध्याता कौन ? ९. अनुप्रेक्षा, १०. शुद्ध लेश्या, ११. लिंग और १२. ध्यान का फल। आठ अंगों के नाम बारह द्वारों से कुछ मिलते जुलते हैं५०॥ १. ध्याता, २. ध्येय, ३. ध्यान, ४. ध्यान फल, ५. ध्यान स्वामी, ६. ध्यान क्षेत्र, ७. ध्यान काल और ८. ध्यानावस्था।
इसमें 'भावना' और अनुप्रेक्षा ऐसे दो शब्द आये हैं। इन दोनों में खास कोई अन्तर नहीं है, सिर्फ अभ्यास की भिन्नता है। ज्ञान दर्शनादि भावना ध्यान की योग्यता प्राप्त करने के लिये है और अनित्यादि अनुप्रेक्षा वीतराग भाव की पुष्टि के लिये है। यह ध्यान के मध्यवर्ती काल में की जाती है। ध्यान निरन्तर नहीं कर सकते। एक विषय पर मन सतत प्रवाहित नहीं हो सकता। मन चंचल है। भटकना उसका स्वभाव है। ध्यानावस्था में बीचबीच में ध्यानान्तर हो जाता है। उस समय अनित्यादि भावना-अनुप्रेक्षा का प्रयोग किया जाता है। यह मध्यकालीन भावना है और ज्ञानादि प्रारंभिक भावना है। ___ अज्ञानी मनुष्य ध्यान नहीं कर सकता। शम, संवेग, निवेद, अनुकम्पा और आस्तिक ये सम्यग्दर्शन के लक्षण होने पर ही जीव में ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ता है। चारित्र और वैराग्यहीन व्यक्ति ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि उसका मन स्थिर नहीं रहता।
जिस विषय या प्रवृत्ति का बार बार अनुचिंतन किया जाता है उसे भावना कहते हैं। ध्यान की योग्यता के लिये ५१ ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना, और वैराग्य भावना और भी मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना का सतत अभ्यास करना चाहिये।
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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