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विधान एक वस्तु में छद्मस्थों के चित्त के अवस्थान - काल की दृष्टि है, न कि केवलज्ञानियों की दृष्टि से है। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् चिन्ता दूसरी वस्तु का अवलम्बन लेकर ध्यानान्तर के रूप में बदल जाती है। इन बहुत वस्तुओं का संक्रमण होने पर ध्यान की संतान (ध्यानों का संतान काल) चिर काल तक भी चलती रहती है। यह छद्मस्थ ध्यान का लक्षण है। छमस्थ का श्रुतज्ञान (ध्यान) ही स्वर्ग और मोक्ष प्रदाता है।४१ करण साधन-निरुक्ति की दृष्टि से ४२ स्थिर मन और स्थिर तात्त्विक श्रुतज्ञान को ध्यान कहा है। यह कथन निश्चयनय की दृष्टि से है।
द्रव्यार्थिक और निश्चयनय द्वारा ध्यान का लक्षण बताया जा रहा है - द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा 'एक' शब्द केवल अथवा तथोदित (शुद्ध) का वाचक है। 'चिन्ता' अन्तःकरण की वृत्ति का और 'रोध' अथवा 'निरोध' नियंत्रण का वाचक है। निश्चयनय की दृष्टि से 'एक' शब्द का अर्थ 'शुद्धात्मा' उसमें चित्तवृत्ति के नियंत्रण का नाम ध्यान होता है। अथवा अभाव का नाम 'निरोध' है और वह दूसरी चिन्ता के विनाशरूप एक चिन्तात्मक है - चिन्ता से रहित स्वसंवित्तिरूप है।४३ 'रोध' और 'निरोध' एक ही अर्थ के वाचक हैं। शुद्धात्मा के विषय में स्वसंवेदन ही ध्यान है।४४ निश्चयनय की दृष्टि से ध्याता को ध्यान कहा गया है, क्योंकि ध्यान ध्याता से अलग नहीं रह सकता। ध्यान, ध्याता, ध्येय के साधनों में कोई विकल्प नहीं हो सकता। इन तीनों का एकीकरण ही ध्यान है। ध्येय को ध्याता में ध्याया जाता है इसलिये वह कर्म और अधिकरण दोनों ही रूप में ध्यान ही है। कर्म साधन और अधिकरण साधन निरुक्ति की दृष्टि से ध्येय और ध्येय के आधार को भी ध्यान ही कहा गया है। क्योंकि निश्चयनय की दृष्टि से ये दोनों ध्यान से भिन्न नहीं हैं।४५ अपने इष्ट ध्येय में स्थिर हई बद्धि दूसरे ज्ञान का स्पर्श नहीं करती इसलिये 'ध्याति' को भी ध्यान कहा है। भाव साधन की दृष्टि से 'ध्याति' को ध्यान कहा गया है और निश्चयनय की दृष्टि से शुद्धात्मा ही ध्येय है।४६ जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है वह ध्यान है, जो ध्यान करता है वह ध्यान है, जिसमें ध्यान किया जाता है वह ध्यान है और ध्येय वस्तु में परम स्थिर - बुद्धि का नाम भी ध्यान ही है। आत्मा अपने आत्मा को अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा अपने आत्मा के लिये अपने आत्महेतु से ध्याता है। इसलिये निश्चयनय की दृष्टि से यह कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट् कारक में परिणत आत्मा ही ध्यान स्वरूप है।४७ षट् कारक रूप आत्मा कैसे ध्यान स्वरूप हो सकती है? जो ध्याता है वह आत्मा (कर्ता), जिसको ध्याता है वह शुद्ध स्वरूप आत्मा (कर्म), जिसके द्वारा ध्याता है वह ध्यानपरिणत आत्मा (करण), जिसके लिये ध्याता है. वह शुद्ध स्वरूप के विकास - प्रयोजनरूप आत्मा (सम्प्रदान), जिस हेतु से ध्याता है, वह सम्यग्दर्शनादिहेतु आत्मा (अपादान) और जिसमें
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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