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________________ व्यग्र इसलिये है कि वह विविध अों-मुखों अथवा आलंबनों को लिये हुए है, जब कि ध्यान व्यग्र नहीं होने का कारण वह एकमुख तथा आलम्बन को लिये हुए एकाग्र ही होता है। यों तो ज्ञान से भिन्न ध्यान कोई अलग वस्तु नहीं है। वस्तुतः निश्चल अग्निशिखा के समान अवभासमान ज्ञान ही ध्यान कहलाता है। इससे फलित होता है कि ज्ञान की उस अवस्था विशेष का नाम ध्यान है, जिसमें वह व्यग्र न रहकर एकाग्र हो जाता है। योगी के 'चिन्ता-एकाग्र-निरोधन' नामक योग के लिये 'प्रसंख्यान' 'समाधि' ओर 'ध्यान' भी कहते हैं और वह अपने इष्ट फल को प्रदान करनेवाला होता है।३७ प्रस्तुत वाच्यार्थ में 'निरोध' शब्द का प्रयोग भाव साधन में न कर कर्म साधन में किया गया है- जो रोका जाता है वह निरोध है ओर चिन्ता का जो निरोध करता है वह चिन्तानिरोधक है। इसमें जो 'एकान' पद दिया गया है, उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है क्योंकि द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य में संक्रम का विधान है। ध्यान अनेक मुखी न होकर एक मुखी होता है और उस मुख में ही संक्रम होता रहता है। 'अन' आत्मा को भी कहते हैं। इसलिये ध्यान लक्षण में प्रधान आत्मा को लक्ष्य बनाकर चिन्ता का निरोध करना अथवा द्रव्य रूप से एक ही आत्मा को लक्ष्य बनाना स्वीकृत है। ध्यान स्ववृत्ति होता है। इसलिये इसमें बाह्य चिन्ताओं से निवृत्ति होती है। इसीलिये ध्यान शब्द की व्याख्या में 'एकाग्रचिंतानिरोध' ही यथार्थ है।३८ श्रुतज्ञान और नय की दृष्टि से ध्यान संज्ञा का विशेष लक्षण स्थिर मन का नाम ध्यान और स्थिर तात्त्विक (यथार्थ) श्रुतज्ञान का नाम भी ध्यान है।३९ ज्ञान और आत्मा ये एक ही पदार्थ के दो नाम हैं। इसलिये इनमें से जो जब विवक्षित होता है उसका परिचय तब दूसरे नाम के द्वारा कराया जाता है। जब आत्मा का नाम विवक्षित होता है तब उसके परिचय के लिये कहा जाता है कि वह ज्ञान स्वरूप है, और जब ज्ञान नाम विवक्षित होता है तब उसके परिचय के लिये कहा जाता है कि वह आत्मस्वरूप है।४० इसलिये आत्मज्ञान और ज्ञान आत्मा ही ध्यान है। रागद्वेषरहित तात्त्विक श्रुतध्यान (ध्यान) अन्तर्मुहूर्त में स्वर्ग या मोक्ष प्रदाता है। यह ध्यान छद्मस्थों को होता है। वीतराग सर्वज्ञ के लिये 'योग निरोध' ही ध्यान है। जिस श्रुतज्ञान को ध्यान कहा गया है उसके तीन महत्त्वपूर्ण विशेषण है - उदासीन, यथार्थ और अति निश्चल। इन विशेषणों से रहित श्रुत्ज्ञान ध्यान की कोटि में नहीं आता, वह व्यग्र होता है और ध्यान व्यग्र नहीं होता। 'अन्तर्मुहूर्त' पद द्वारा एक विषय में ध्यान के उत्कृष्ट काल का निर्देश किया गया है और यह काल मर्यादा भी उत्तम संहननवालों की दृष्टि से है। हीन संहननवालों का एक ही विषय में लगातार ध्यान इतने समय तक न रहने के कारण इससे भी कम काल की मर्यादा को लिये हुए होता है। और भी अन्तर्मुहूर्त काल की मर्यादा का जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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