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________________ (४) ध्यान योग का जैन दृष्टि से स्वरूप - लक्षण ध्यान का स्वरूप काकतालीय न्याय की भांति मनुष्यत्व को प्राप्त मनुष्य ही अपने कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञाता हो सकता है। इसीलिये ज्ञानियों का कथन है कि मनुष्य ही अपने स्वरूप का निश्चय मनुष्य भव में कर सकता है अन्य भव में नहीं।३१ स्व स्वरूप का बोध ध्यान के आलंबन से ही हो सकता है। क्योंकि मन अनेक पदार्थों में परिभ्रमण करता रहता है और उसका बोध आत्मा को होता है, उस बोध को ज्ञान कहते हैं। परंतु वह ज्ञान जब अग्नि की स्थिर ज्वाला के समान एक ही विषय पर स्थिर होता है तब उसे ध्यान कहते हैं। ३२ मन की दो अवस्थाएँ हैं - ध्यान और चित्त। एक ही शुभाध्यवसाय में मन को दीपशिखा की तरह स्थिर करना ध्यान कहलाता है - जो स्थिर मन है वह ध्यान है और जो चंचल मन है वह चित्त है। मन का स्वभाव चंचल है। चंचल चित्त की तीन अवस्थाएं होती हैं - भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता। भावना का अर्थ - ध्यान के लिये अभ्यास की क्रिया, जिससे मन भावित हो। अनुप्रेक्षा का अर्थ = पीछे की ओर दृष्टि करना, जिन तत्त्वों के अध्ययन का पुनः पुनः चिंतन मनन करना। चिन्ता का अर्थ = मन की अस्थिर अवस्था है। ऐसे तीन प्रकार के चित्त से भिन्न मन की स्थिर अवस्था 'ध्यान' कहलाती है। ३३ किसी वस्तु में उत्तम संहननवाले को अन्तर्मुहूर्त के लिये चित्त वृत्ति का रोकना - मानस ज्ञान में लीन होने को ध्यान कहा गया है। मानसिक ज्ञान का किसी एक द्रव्य में अथवा पर्याय में स्थिर होना - चिंता का निरोध होना ही ध्यान कहलाता है। वह संवर और निर्जरा का कारण होता है। नाना अर्थों = पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिंता परिस्पन्दवती होती है, स्थिर नहीं हो पाती है, उसे अन्य समस्त अगों-मुखों से हटाकर एक मुखी करने वाले का नाम ही एकाग्र चिन्तानिरोध है। यही ध्यान है। ज्ञान का उपयोग एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त काल तक ही एकाग्र रह सकता है। इसीलिये ध्यान का कालमान अन्तर्मुहूर्त बताया है।३४ एकाग्र चिन्ता निरोध शब्द का अर्थ ___ एक का अर्थ = प्रधान, श्रेष्ठ, अग्र का अर्थ = आलंबन, मुख, चिंता का अर्थ स्मृति और निरोध का अर्थ - अभाव स्वरूप, उस चिंता का उसी एकाग्र विषय में वर्तन का नाम है। द्रव्य और पर्याय के मध्य में प्रधानता से जिसे विवक्षित किया जाय उसमें चिन्ता का निरोध ही सर्वज्ञ भगवन्तों की दृष्टि से ध्यान है।३५ यह तो ध्यान का सामान्य लक्षण है। इस ध्यान लक्षण में 'एकान' का जो अर्थ ग्रहण किया गया है, वह व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिए है। ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है, ध्यान नहीं। ध्यान को तो एकाग्र कहा जाता है।३६ यहाँ स्थूल रूप से ज्ञान और ध्यान के अंतर को व्यक्त किया गया है। ज्ञान २६४ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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