________________
किसी न किसी वस्तु पर ध्यान दिया जाता है। जागृत अवस्था विभिन्न प्रकार के ज्ञान को कराती है। सुप्त अवस्था में हम ध्यान विहीन रहते हैं। .
मनोविज्ञान की दृष्टि से जिस वस्तु पर चेतना का प्रकाश सबसे अधिक केन्द्रित होता है, वह ध्यान का विषय कहा जाता है। चेतना के प्रकाश का किसी वस्तु विशेष पर केन्द्रीभूत होना ध्यान कहा जाता है।२५ ध्यान का विषय क्षण-क्षण में बदलता रहता है। जब हमारी चेतना एक पदार्थ पर केन्द्रीभूत होती है तो उससे सम्बन्धित दूसरे पदार्थों का भी सामान्य ज्ञान हमें होता रहता है। किन्तु इन पदार्थों का ज्ञान अत्यधिक फीका होता है। इसीलिये मनोवृत्ति को तीन भागों में विभाजित किया गया है।
जैन, हिन्दू एवं मनोविज्ञान ने ध्यानावस्था में मन को विचारशून्य निष्क्रिय स्थिति वाला न मानकर शुभ वृत्ति वाला माना है। शुभ वृत्ति की एकाग्रता को ही ध्यान में स्थान है। जैनागमानुसार मन के विकारों पर विजय पाना है। इन्द्रिय और मन को नाश नहीं करना है। मन और इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। आत्मा के शुभाशुभ भावों को क्रियात्मक रूप देने में ये माध्यम हैं। ध्यान साधना का मार्ग विकारों को दूर करने का राजमार्ग है। इसलिये इन्द्रियाँ और मन ध्यान प्रक्रिया में सहायक और बाधक दोनों भी है। विशेषतः ध्यान साधना में मन का केन्द्रीकरण अत्यावश्यक है। इसीलिये मनोविज्ञान में 'मन' की तीन दशाएं वर्णित है२६ - १. अवधान, २. संकेंद्रीकरण और ३. ध्यान। अवधान की प्रक्रिया में 'मन' को किसी वस्तु की ओर चेतनायुक्त किया जाता है। 'अवधान' और 'चेतनायुक्त' इन दोनों शब्दों को एकार्थ माना गया है। पिल्सबरी और मैकडोनल आदि मनोवैज्ञानिकों ने 'अवधान' को एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है, जो मन की ऐंद्रिय अभिज्ञान प्रक्रिया से सीधे सम्बन्धित है। 'अवधान' में मन अपने अभिज्ञानात्मक पदार्थ से पूर्णतः संतुष्ट रहता है, जिसकी वजह से 'अवधान' में 'मन' बाह्य अनुभवों के प्रति अधिक क्रियाशील रहता है और इस प्रक्रिया में मानसिक -ऊर्जा 'वस्तु' के प्रति गतिशील रहती है। बाह्य वस्तुओं के प्रति 'मन' की यह गतिशीलता 'मन' का केवल एक मात्र क्षेत्र है। इसके अतिरिक्त 'मन' का दूसरा भी क्षेत्र है - स्वरूप में मन को केन्द्रित करना। इस स्थिति में 'प्रज्ञा' का उद्गम होता है, जो ऐन्द्रिय जगत से सापेक्ष होते हुए भी निरपेक्ष प्रतीत होती है। यह मानसिक प्रक्रिया एकात्म अवस्था का प्रथम चरण है। इस अवस्था में ही ज्ञानात्मक इन्द्रियाँ अतिरिक्त रूप से 'एकता' की दशा तक पहुंचाती हैं। इसीलिये ज्ञान प्रक्रिया के अन्तर्गत फ्रायड ने मन को तीन भागों में बांटा है - ईड, ईगो और सुपरईगो । भारतीय विचार धारा में ये ही मनस, अहंकार और बुद्धि के रूप में मिलते हैं। मन से बुद्धि तक का विस्तार ही मानसिक क्रिया का विकासशील स्वरूप है। यही मन का जो सूक्ष्म स्तर सुपरईगो द्वारा ग्रहण किया जाता है।
२६२
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org