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________________ ३०२ (ख) परिहारियाऽणुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्स वि य मत्त। छ छम्मासा उ तवो अट्ठारसमासिओ कप्पो।। विशेषावश्यक भाष्य गा. १२७५ इत्तिरिय थेयकप्पे, जिणकप्पे आवकहियाओ। बृहत्कल्पभाष्य भा. १४२६ खेत्ते काल चरित्ते, तित्थे परियाय आगमे वेए। कप्पे लिंगे लेस्सा, झाणे गणणा अभिग्गहा य।। पव्वावण मुंडावण मणसाऽऽवन्ने वि से अणुग्घाया। कारण निप्पडिकम्मा, भत्तं पंथो य तइयाए।। बृहत्कल्प भाष्य गा. १४२९-१४३० ३०३विशेषावश्यक भाष्य गा. १४३१-१४३८, ६४५४-५, १२७६, ६४६१ ३०४ - (क) यस्तु विशेषः स लेशतः प्रोच्यते-तत्रोदकाः करो यावता शुष्यति, तत आरभ्योत्कृष्टतः पंच रात्रिन्दिवानि यावत्कालोऽत्र समय परिभाषया लन्दमित्युच्यते। विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति पृ. १३ (ख) अत्र समयपरिभाषया लन्दमित्युच्यते। _ विशेषावश्यक भाष्य गा. ७ की वृत्ति (ग) "लंदो उ होइ कालो" बृहत्कल्प भाष्य १४३८ (घ) लन्दस्तु भवति कालः, लन्दशब्देन काल उच्यते इत्यर्थः । बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति पृ. ४२९ ३०५ - (क) विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति पृ. १३ (ख) स पुनस्त्रिधा - जघन्य उत्कृष्टो मध्यमश्चा यावता कालेनोदकाद्रः करः शुष्यति तावान् जघन्यः, उत्कृष्टः पंचरात्रिन्दिवानि, जघन्यादूर्द्धमुत्कृष्टादर्वाक् सर्वोऽपि मध्यमः। बृहत्कल्प भाष्य गा. १४३८ एवं उसकी वृत्ति ३०६ - (क) 'उत्कृष्ट लन्दचारिणः' उत्कृष्ट लन्दं पंचरात्ररूप मेकस्यां वीथ्यां चरणशीला यस्मात्।। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग २४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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