________________
२९६
(ग)
एगारसंगधारी एआई धम्मसुक्कझाणी या चत्ता सेसकषाया मोणवइ कंदरावासी।।
भावसंग्रह (देवसेन) गा १२३, १२०, १२२
उद्धृत, ठाणं (मुनि नथमल) पृ.७०६ भावसंग्रह (नामदेव)
उद्धृत, श्रमण भगवान महावीर
(गणी कल्याण-विनयजी) पृ. २८५ 'षष्ठ परिच्छेद' २९७ - (क) परिहारेण विसुद्धं सुद्धो वा तओ जहि विसेसेण। तं परिहार विसुद्धं परिहार विसुद्धियं नाम।।
विशेषावश्यक भाष्य गा. १२७० (ख) परिहारस्तपोविशेषः, तेन विशुद्धं परिहारविशुद्धम्।
विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति (हेमचन्द्र) पृ. ४७८ परिहरणं 'परिहार' स्तपोविशेष 'स्तेन विशुद्धम्' विसुद्धो वा सो तवो विसेसेण जत्थ तप्परिहारविसुद्ध, तदेव परिहारविशुद्धिकम्।।
___ विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति (कोट्याचार्य) पृ. ३१७ २९८ - तं दुविगप्पं निव्विस्समाण - निविट्ठकाइयवसेण। परिहारिया-गुपरिहारियस्स कप्पट्ठियस्स विय।।
विशेषावश्यक भाष्य गा. १२७१ २९९ - (क) परिहारो पुण परिहारियाण सो गिम्ह-सिसिर वासासु।
पत्तेयं तिविगप्पो चउत्थयाई तवो नेओ।। गिम्ह-सिसिर-वासासुंचउत्थयाईणि वारसंताई। अड्ढोपक्कंतौए नहण्ण-मन्झिमु-क्कोसयतवाणं।।
विशेषावश्यक भाष्य गा. १२७२-१२७३ परिहारकाश्चत्वारः ४ अनुपरिहारिकाश्चत्वारः ४
कल्पस्थितश्चैकः, इति नवधा गणः। ३०.. (क) करंति आयंबिलेण परिकम्म।
बृहत्कल्प भाष्य (पुण्यविजयनी) गा. १४२६
(ख)
परिसर
૨૪૮
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
•www.jainelibrary.org