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(घ) प्रच्छन्नमालोचयति यथात्मनेव श्रृणोति नाचार्यः।
स्थानांगवृत्ति पत्र ४६०, उद्धृत, ठाणं - मुनि नथमल पृ. ९७७ 'छण्णं' ति-तहा अवराहे अप्पसदेण उच्चरइ जहा अप्पणा चेव सुणेति, णो गुरु।
निशीथसूत्रे, भाष्य, भा. ४ पृ. ३६३ (च) दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ अत्तदोससमालोएत्तए तं
जहा- जाइ संपण्णे कुलसंपण्णे विनयसंपण्णे णाणसंपण्णे दंसणसंपण्णे चरित्त संपण्णे, खंते दंते अमायी अपच्छाणुतावी।
स्थानांगसूत्र १०/३१ (छ) दसहि ठाणेहिं अणगारे अरिहइ आलोयणं पडिच्छित्तए, तं
जहा- आयारवं अवहारवं ववहारवं ओवीलए पकुव्वए अपरिस्साइ णिज्जावए अवायदंसी पियधम्मे दढधम्मे।
स्थानांगसूत्र १०/३१ २१७. प्रमाद दोषव्युदासः भावप्रसादो नैःशल्यम् अनवस्यावृत्ति मर्यादा त्यागः संयमादादर्यमाराधनमित्येवमादीनां सिद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते।
तत्त्वार्थवार्तिक ९/२२ २१८. (क) धम्मस्स विणओ मूली । दशवकालिक सूत्र ९/२२ (ख) विणओ जिणसासणे मूलं विणीओ संजओ भवे। विणयाओ विप्पमुक्कस्स कओ धम्मो को तवो।।
आवश्यक। हरिभद्रीय। १२/१६ अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दन्तो सही होइ अस्सिलोए परत्थ या वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य। माहं परेहि दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य।
__ उत्तराध्ययन सूत्र १/१५-१६ (घ) सत्तविहे विणए पण्णत्ते तं जहा-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कायविणए लोगोवयार-विणए।
भगवतीसूत्र २५/७ (ङ) औपपातिक सूत्र पृ. १८ जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
(ग)
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