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कपड़े के मैल को शोधन करने के लिए जलादि आवश्यक है, खान से निकले हुए मिश्रित वस्तुओं को लोहे से अलग करने के लिए अग्नि जरूरी है, पृथ्वीतल पर जमे हुये कीचड़ को सूखाने के लिये सूर्यताप आवश्यक है, वैसे ही ध्यानरूप जल, अग्नि और सूर्य कर्ममल का नाश करने के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार ध्यान से मन, वचन, काय के योगों का अवश्य तपन, शोधन और भेदन होता है, उसी तरह ध्यानी भी कर्म का अवश्यमेव तपन, शोधन और भेदन करता है।३१४
रोग के असल कारण का निवारण लंघन, विरेचन और औषधी सेवन से होता है, वैसे ही कर्मरोग का शमन ध्यानादि से होता है। ध्यान कर्म बादलों को उड़ाने में हवा का कार्य करता है तथा कर्मेन्धन दाहक दावानल है। दावानल चिरसंचित काष्ठ घासादि को शीघ्र जला देती है वैसे ही ध्यानाग्नि कर्मेन्धन को जलाकर भस्म कर देती है। ३१५ क्योंकि ध्यान आध्यात्मिक, भौतिक, दैविक, सर्व-विपत्तीरूपी लतासमूह का छेदन करने के लिए तीक्ष्ण परशु के समान है। जगत् में कार्मण (जादू) करने के लिए जड़ी-बूटी, मंत्र-तंत्रादि की विधि करनी पड़ती है, परंतु ध्यान जड़ी-बूटी, मंत्र और तंत्र के बिना ही मोक्ष लक्ष्मी को वश कराने में अमोघ कारण है।३१६ इसीलिए ध्यान का सभी साधना पद्धतियों में महत्त्व बताया गया है और उसे द्वादशांगी का सार कहा है।
सभी साधना के मूल में चित्तशुद्धि को प्रधानता दी गई है। मन शुद्धि के बिना साधना हो ही नहीं सकती। साधना के लिए मनशुद्धि और मन शुद्धि ध्यान से प्राप्त होती है। शुभ विचारों के अनुष्ठानों से अशुभ विचार (आर्त रौद्र ध्यान) जैसे-जैसे कम होते जाते हैं वैसे-वैसे साधना का बल बढ़ता जाता है। समभाव की साधना ही ध्यान की साधना है। समभाव का आधार ध्यान और ध्यान का आधार समभाव ही है। प्रशस्त ध्यान से केवल साम्यभाव ही स्थिर नहीं होता किंतु कर्म निर्जरा भी होती है। कर्म निर्जरा के कारण नरक और तिथंच गति के परिभ्रमण से मुक्त बनकर साधक स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त करता है। अतः मोक्ष साधक के लिए ध्यान योग ही श्रेष्ठ है, क्योंकि जीव के द्वारा ही सर्व उपाधियों को साधा जाता है।३१७
ध्यान का महत्त्व अपरंपार है। ध्यानयोगी अपने ध्यान बल से तीनों लोक की समस्त वस्तुओं को हिला सकता है। देवताओं के आसन को चलायमान कर सकता है
और अगोचर वस्तुओं का दर्शन भी करा सकता है। किन्तु ध्यानविहीन व्यक्ति अपनी देह में स्थित सच्चिदानंद स्वरूप आत्मतत्त्व का दर्शन नहीं कर सकता है, जैसे अन्धे को सूर्य दर्शन नहीं होता। आत्मा से परमात्मा बनने के लिए ध्यानयोग ही श्रेष्ठ है। ध्यान बल के बिना आत्मदर्शन हो नहीं सकता। इसके लिए द्वादशांगी का सार ध्यानयोग ही पर्याप्त है। वह परमात्म तत्त्व का शीघ्र दर्शन करा के क्षणमात्र में मोक्ष पहुंचा देता है।३९८ इस आत्मा
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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