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________________ एकलविहारपडिमा : अकेले रहकर साधना करने का संकल्प करना। तीन स्थितियों में अकेले रह सकते हैं- १) एकलविहारपडिमा धारक, २) जिनकल्प पडिमा धारक और ३) मासिक आदि बारह भिक्खु पडिमाधारका आठ गुण सम्पन्न साधक ही एकाकी विहार पडिमा स्वीकार कर सकते हैं। वे आठ गुण इस प्रकार हैं- १) श्रद्धावान, २) सत्य पुरुष, ३) मेधावी, ४) बहुश्रुत, ५) शक्तिमान, ६) अल्पाधिकरण, ७) धृतिमान और ८) वीर्यसम्पन्न।। आगमकालीन विशिष्ट साधना पद्धतियों में स्थित साधक की साधना ध्यानयोग से सम्पन्न होती है। प्रत्येक साधना पद्धति में ध्यान को स्वतंत्र स्थान दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि समस्त साधना के मूल में ध्यानावस्था है। ध्यान के बिना साधना सिद्ध हो ही नहीं सकती। जिससे साधा जाता है उसे साधना कहते हैं। साधक विभिन्न साधनों द्वारा साध्य को सिद्ध करता है। विशिष्ट साधना पद्धति साध्य को सिद्ध करने के लिए ही की जाती है। साध्य मोक्ष है और मोक्ष का श्रेष्ठ कारण ध्यान है। इसलिए समस्त साधना पद्धतियों में ध्यान को द्वादशांगी का सार माना गया है। साधनाओं में ध्यान का महत्त्व द्वादशांगी का सार ध्यान योग चार पुरुषार्थ में मोक्ष पुरुषार्थ को मुख्य माना गया है। द्वादशांग श्रुत महासागर का सार तत्त्व ध्यानयोग है, क्योंकि मोक्ष का साधन ध्यान है और वह ध्यान सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र गर्भित है। सर्वज्ञ कथित तत्त्वों को यथार्थ जानना, बाद में उसमें यथार्थ श्रद्धा होना, श्रद्धाशील साधक ही समस्त योगों (सावधक्रिया-पापों) का नाश करने में समर्थ बनता है। यही चारित्र है। जैन धर्म की समस्त साधनायें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप के अंतर्गत ही निहित हैं। उनमें अहिंसा आदि अनुष्ठानों का प्रतिपादन मूलगुण और उत्तरगुण की रक्षार्थ किया गया है। श्रमण और श्रावक की समस्त क्रियाएं ध्यानयोग से संबंधित हैं। साधना का सार कर्मक्षय है। कर्मक्षय की प्रक्रिया ध्यान से ही शीघ्र क्षय होती है। इसलिए ज्ञानियों का कथन है कि शान्तिप्रदाता संसार दुःख विनाशक ज्ञानसुधारस का पान करके संसार तारक ध्यान जहाज का अवलम्बन लेने से मन की प्रसन्नता बढ़ती है। मन को खुश करने की दवा ध्यान को बताया है। एकता का होना ही ध्यान है। पहले ज्ञान प्राप्त करेगा तब ही एकाग्रता में वृद्धि होगी, एकाग्रता की वृद्धि होने से कर्मों का क्षय होगा और कों का क्षय होते ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। परंतु कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है और सम्यग्ज्ञान ध्यान से सिद्ध होता है। ध्यान से ज्ञान की एकाग्रता बढ़ती है इसलिए श्रमण और श्रावक के मूलगुण उत्तरगुण पोषक सभी साधनायें ध्यान जन्य ही हैं। अतः ध्यानयोग द्वादशांगी का सार है।३१३ १८८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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