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________________ कवल कम करते हुए अमावास्या को उपवास करता है। इस पडिमा की प्रक्रिया का स्वरूप व्यवहार भाष्य में ही मिलता है; स्थानांग सूत्र में तो इस पडिमा का सिर्फ उल्लेख ही है। वज्रमध्यचन्द्रपडिमा : इस पडिमा में मध्य भाग वज्र की तरह कृश होता है। इसलिए इसे वज्रमध्यचन्द्रपडिमा कहते हैं। इसका आदि-अंत स्थूल और मध्य कृश होता है। इसका स्वरूप व्यवहार भाष्य के अनुसार इस प्रकार है - इस पडिमा में स्थित मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह कवल आहार ग्रहण करके क्रमशः एक-एक कवल कम करते हुए अमावस्या के दिन उपवास करता है। पुनः शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से एक कवल ग्रहण करके क्रमशः एक-एक कवल बढ़ाते हुए पूर्णिमा के दिन १५ कवल आहार ग्रहण करता है। इन पडिमाओं को ग्रहण करने वाला मुनि व्युत्सृष्टकाय (रोगांतक उत्पन्न होने पर शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता) और त्यक्तदेह (बंधन, रोधन, हनन, मारन का निवारण नहीं करता) होता है। परीषह उपसर्ग को समभाव से सहन करते हुए इस पडिमा की आराधना करते हैं। भद्रोत्तर पडिमा : इस पडिमा के दो प्रकार हैं- १) क्षुद्रिकाभद्रोत्तर पडिमा और २) महतीभद्रोत्तर पडिमा। क्षुद्रिकाभद्रोत्तर द्वादश भक्त (पांच दिन के उपवास) से प्रारंभ की जाती है और अधिकतम विंशतिभक्त (नौ दिन के उपवास) का होता है। इस पडिमा को पूर्ण होने में दो सौ दिन लगते हैं। जिनमें १७५ दिन तप के और २५ दिन पारणा के होते हैं। इसकी स्थापना विधि प्रथम पंक्ति के आदि में ५ अंक और अंत में नौ का अंक होता है। कुल पाँच पंक्तियाँ होती हैं। शेष विधि क्षुद्रिकाभद्रोत्तर पडिमा के समान जानना। महती भद्रोत्तर पडिमा का प्रारंभ भी द्वादश भक्त से ही होता है। किन्तु अधिकतम तप चतुर्विंशतिभक्त (११ दिन के उपवास) तक होता है। इसकी स्थापना विधि प्रथम पंक्ति के आदि में पाँच का अंक और अंत में ग्यारह का अंक होता है। बीच की संख्या क्रमशः भर दी जाती है। शेष विधि क्षुद्रिकाभद्रोत्तर पडिमा के समान ही है। इसमें सात पंक्तियां होती शय्या, वस्त्र और पात्र पडिमा : इन तीनों पडिमा में एक सी प्रतिज्ञा की जाती है। सिर्फ पडिमा के अनुसार नामों का उल्लेख होता है। इन पडिमाओं का धारक चार प्रकार की प्रतिज्ञा (अभिग्रह) करता है- १) मैं उद्दिष्ट (नामोल्लेखपूर्वक संकल्पित) संस्तारक वस्त्र-पात्र मिला तो ग्रहण करूंगा, दूसरा नहीं। २) मैं उद्दिष्ट संस्तारक वस्त्र-पात्र में दृष्ट को ग्रहण करूंगा, अदृष्ट को नहीं। ३) मैं उद्दिष्ट संस्तारक वस्त्र-पात्र शय्यातर के घर में हो तो ग्रहण करूंगा दूसरे का नहीं। ४) मैं उद्दिष्ट संस्तारक वस्त्र-पात्र यथासंसृत (सहज बिछा हो,.....हो तो ग्रहण करूंगा, दूसरा नहीं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग १८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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