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शुद्रिकाप्रसवन पडिमा और महती प्रस्रवन पडिमा : इन दोनों पडिमाओं का स्थानांग सूत्र में उल्लेख मात्र मिलता है। व्यवहार सूत्र के नौवें उद्देशक में इनकी पद्धति निर्दिष्ट की गई है। किन्तु व्यवहार भाष्य में तो इनका विस्तृत विवेचन है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से विचार किया है कि द्रव्य से पीना, क्षेत्र से गांव के बाहर रहना, काल से दिन में अथवा रात्रि में, प्रथम निदाघ काल में अथवा अंतिम निदाघ काल में। स्थानांग वृत्तिकार के कथनानुसार शरद और निदाघ दोनों समयों का उल्लेख है। जब कि व्यवहार भाष्य में शरद का उल्लेख मिलता है। भावतः स्वाभाविक और इतर प्रस्रवण। पडिमाप्रतिपन मुनि स्वाभाविक को पीता है और इतर को त्यागता है (छोड़ता है)। कृमि तथा शुक्रयुक्त प्रस्रवण इतर प्रस्रवण है। स्थानांग वृत्तिकार के कथनानुसार भाव की व्याख्या में देवादि का उपसर्ग सहन किया जाता है। यदि यह पडिमा खाकर की जाती है तो छह दिन के उपवास से की जाती है और यदि.खाकर नहीं की जाती है तो सात दिन के उपवास से पूर्ण की जाती है।
इस पडिमा के सेवन करने से तीन लाम होते हैं - १) सिद्ध होना, २) महर्द्धिक देव होना और ३) रोगमुक्त होना।
पडिमा पालन करने के बाद आहार प्रक्रिया - प्रथम सप्ताह में उष्णजल के साथ चावल लेना। दूसरे सप्ताह में यूष-मांड (मंगादि का जूस)। (भात पकाने पर निकलने वाला पानी)। तीसरे सप्ताह में त्रिभाग उष्णोदक और थोड़े से मधुर दधि के साथ चावल ग्रहण। चतुर्थ सप्ताह में दो भाग उष्णोदक और तीन भाग मधुर दधि के साथ चावल। पांचवें सप्ताह में अर्द्ध उष्णोदक और अर्द्ध मधुर दधि के साथ चावल। छठे सप्ताह में त्रिभाग उष्णोदक और दो भाग मधुर दधि के साथ चावला सातवें सप्ताह में मधुरदधि में थोड़ा सा उष्णोदक मिलाकर उसके साथ चावला आठवें सप्ताह में मधुरदधि अन्य रसों के साथ चावला सात सप्ताह तक रोग के प्रतिकुल न हो वैसा भोजन दधि के साथ किया जाता है। बाद में भोजन का प्रतिबंध समाप्त हो जाता है। महती प्रस्त्रवण पडिमा की विधि भी क्षुद्रिकाप्रस्रवणपडिमा के समान ही है। किन्तु केवल इतना ही अंतर है कि जब वह खा पीकर की जाती है तब सात दिन के उपवास से पूर्ण होती है और बिना खाये आठ दिन के उपवास से।
यवमध्यचन्द्रपडिमा : चन्द्र पडिमा में मध्य भाग यव की तरह स्थूल होता है। इसलिए इसे यवमध्यचन्द्रपडिमा कहते हैं। जिसका आदि और अंत कृश और मध्य स्थूल होता है। इस पडिमा में स्थित मुनि शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक कवल आहार ग्रहण करता हुआ क्रमशः एक-एक बढ़ाता हुआ शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को पन्द्रह कवल आहार लेता है। पुनः कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से चौदह कवल आहार ग्रहण करके क्रमशः एकेक
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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