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के गुणों का समस्त समूह ध्यान से ही प्रगट होता है।३१९ इसीलिए ध्यान का महत्त्व समस्त साधना पद्धतियों में प्रधान माना गया है।
आगम युग, मध्य युग तथा वर्तमान युग में बताई गई विभिन्न साधना पद्धतियों में ध्यान को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि सभी साधनाओं का अंग ध्यान ही है। साधना पद्धतियों में से यदि ध्यान शब्द को निकाल दिया जाय तो वह मोक्षपथगामिनी साधना नहीं बन सकती किन्तु नरकगामी बन जायेगी। इसीलिए लौकिक व आध्यात्मिक तीर्थों में ध्यान तीर्थ को ही श्रेष्ठ माना है। तीर्थ के दो प्रकार हैं- द्रव्य और भाव। द्रव्य तीर्थ का अर्थ = वह पवित्र या पुण्य स्थान जहाँ धर्मभाव से श्रद्धासहित लोग, यात्रा, पूजा या स्नान के लिये जाते हैं जैसे कि गिरनार, पालीताना, हस्तिनापुर, सम्मेतशिखर, द्वारिका, प्रयाग, काशी, मथुरा, पंढरपुर, हरिद्वार, तिरुपति, बद्रीनाथ, अंबरनाथ आदि। शास्त्र में तीन प्रकार के तीर्थ माने गये हैं - १) जंगम = साधु, श्रमण, ब्राह्मणादि। २) मानस = सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुर-भाषण, जप, तप, संयम, ध्यान आदि। ३) स्थावर = ऊपर बताये गये तीर्थ स्थान के नाम।
जिस स्थान से पापादि क्रिया का नाश होता है वह तीर्थ कहलाता है। रत्नत्रयादि वर्णित सभी साधना पद्धतियाँ आध्यात्मिक तीर्थ हैं। इस तीर्थ से पापादि सभी शुभाशुभ क्रियाओं का नाश हो करके परमात्म स्वरूप स्व आत्मा का दर्शन होता है। इसलिए द्वादशांगी का सार ध्यानयोग को आध्यात्मिक सभी तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ माना है।३२०
संदर्भ सूचि
१. (क) स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते। स्वयं प्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते।
कर्मग्रंथ भा. ४ (ख) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण या
उत्तराध्ययन सूत्र २०/३७ २. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मंच मोहप्पभवं वयंति। कम्मच जाइ-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइ-मरणं वयन्ति।
उत्तराध्ययन सूत्र, ३२/७ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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