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आरंभ त्याग पडिमा : आगम कथित सभी नियमों का पालन करते हुए स्वयं आरंभ क्रिया न करें, किन्तु छहजीवनिकाय की दया पाले। इसका जघन्य काल एक, दो या तीन दिन का है और उत्कृष्ट आठ मास का है।
प्रेष्य त्याग पडिमाः इसमें सभी नियमों के पालन के आरंभ का त्याग किया जाता है किन्तु उद्दिष्ट भक्त का त्याग नहीं किया जाता। वह स्वयं को बनाये हुए भोजन का सेवन करता है। वह अनुमोदना का भी त्याग नहीं कर सकता। इसमें आरंभ कार्य के लिये किसी को भेजना अथवा भिजवाने का काम नहीं किया जाता है। आरंभवर्धक परिग्रह का त्याग होने के कारण इसे 'परिग्रहत्यागपडिमा' भी कहते हैं। इसका जघन्य कालमान एक, दो अथवा तीन दिन का होता है और उत्कृष्ट नौ मास का है।
उहिष्ट भक्त त्याग पडिमाः इसमें अपने निमित्त बनाये हए भोजन का त्याग किया जाता है। सांसारिक प्रश्नों के पूछने पर जवाब नहीं देते किन्तु इतना ही कहते हैं "जानता हूँ या नहीं जानता हूँ।" कोई कोई पूरा सिर मुंडन करते हैं तो कोई-कोई शिखा रखते हैं। इसकी जघन्य कालमर्यादा एक, दो या तीन दिन की है और उत्कृष्ट दस मास की है।
श्रमण भूत पडिमाः इस पडिमा का धारक श्रमण तो नहीं होता किन्तु श्रमण सदृश रहता है। साधु-सा वेश और भण्डोपकरण धारण करता है। शक्ति हो तो केशलंचन भी करता है। साधु सी भिक्षाचर्या से जीवनयापन करता है। इसका काल जघन्य इक दिन का और उत्कृष्ट ग्यारह मास का है।
वर्तमान में श्रावक पडिमा का पालन किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य पडिमाओं का स्वरूप : १२
समाधिपडिमा : इस पडिमा के दो प्रकार हैं - श्रुतसमाधि पडिमा और चरित्र समाधि पडिमा।
उपधान पडिमा : उपधान शब्द का अर्थ तपस्या किया जाता है। इसलिये भिक्षु की बारह पडिमा और श्रावक की ग्यारह पडिमा उपधान पडिमा कही जाती है।
विवेक पडिमा : इस पडिमा में भेदविज्ञान की प्रक्रिया स्पष्ट की जाती है। आत्मा अनात्मा का भेदविज्ञान करते हुए कषायों की भिन्नता का अनुचिन्तन (ध्यान) करता है। बाह्म ओर आभ्यन्तर संयोगों की भिन्नता का प्रेक्षण करता है। बाह्य संयोग के तीन अंग होते हैं - गण (संगठन), शरीर और मक्तपान। इनका भेदज्ञान होते ही साधक व्युत्सर्ग पडिमा में चला जाता है। १८४
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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