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________________ चौविहार उपवास करते हैं। दिन में सूर्य की आतापना लेते और रात्रि में नग्नावस्था में एक ही करवट पर सोते अथवा सामर्थ्य होने पर कायोत्सर्ग करते। गांव के बाहर उत्तानासन, पार्खासन और निषद्यासन (पैरों को बराबर करके) में ध्यान करते हैं। उपसर्ग आने पर समभाव से सहन करते। द्वितीय सत्तररात्रिन्दिया भिक्खु पडिमा : यह नौवीं भिक्खु पडिमा सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेले-बेले (दो-दो उपवास) से पारणा किया जाता है। शेष सब आठवीं भिक्खुपडिमा के समान ही है किन्तु विशेषता इतनी है कि इसमें रात्रि को शयन नहीं किया जाता किन्तु ग्राम के बाहर दण्डासन, लगुडासन एवं उत्कटुकासन से रात्रि में ध्यान किया जाता है। तृतीय सत्तरात्रिन्दिया भिक्खु पडिमा : यह दसवीं भिक्खु पडिमा भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले (तीन-तीन उपवास) से पारणा किया जाता है। विशेष पूरी रात गोदोहनासन, वीरासन, अथवा आग्रकुब्जासन से ध्यान करते हैं। अहोरात्रि भिक्खु पडिमा : इस ग्यारहवीं पडिमा में एक रात और एक दिन तक (अहोरात्र) साधना की जाती है। चौविहार बेले के द्वारा इसकी आराधना की जाती है और नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्डासन में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है। एकरात्रिभिक्खुपडिमा : यह बारहवीं भिक्खु पडिमा एक रात्रि की होती है। इसकी आराधना चौविहार तेले से की जाती है। गांव के बाहर निर्निमेष नेत्र से किसी एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके कायोत्सर्ग किया जाता है। मारणांतिक उपसर्ग आने पर भी समभाव से सहन किया जाता है। इन बारह भिक्खु पडिमाओं के विषय में कुछ मान्यताएं भिन्न-भिन्न हैं। प्रथम से लेकर सातवीं पडिमा तक का कालमान क्रमशः एक-एक मास बढ़ाते हुए सात मास तक जाते हैं। उनकी मान्यता आगम के आधार पर ही है। आठवीं, नौवीं, दसवीं पडिमा में कुछ आचार्य के कथनानुसार चौविहार उपवास एकान्तर रूप से माना जाता है। किन्तु दशाश्रुतस्कन्धसूत्र, अभयदेवकृत समवायांग टीका, हरिभद्रकृत आवश्यक टीका में आठवीं से दसवीं पडिमा तक चौविहार उपवास का ही उल्लेख है। और भी कुछ अंतर है किन्तु यह शोधप्रबन्ध का विषय नहीं है। ___ बारह भिक्खु पडिमाओं का यथाशक्ति पालन न करना, उन पर श्रद्धा न रखना एवं विपरीत प्ररूपणा करना, अतिचार है। वर्तमान में भिक्खु पडिमा का विच्छेद हो गया है। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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