________________
यथालन्दक मुनि भी जिनकल्पक मुनि की तरह "तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल" इन पांच तुलाओं से सम्पन्न होते हैं। यह साधना गच्छ में रहकर या गच्छ के बाहर की जाती है। इसीलिये इनके दो प्रकार हैं-गच्छप्रतिबद्ध और गच्छ अप्रतिबद्ध। पुनश्च इनके दो भेद हैं। जिनकल्पिक यथालन्दिक और स्थविरकल्पिक यथालन्दिक। ये पांचपाँच के समूह में होते हैं। जिनकल्पिक की भांति ही इनकी सारी क्रियायें होती हैं। किन्तु ये उत्कृष्टतः एकेक गलियों में पांच-पांच दिन तक पर्यटन करते हैं। इनकी संख्या कम से कम पन्द्रह और अधिक दो हजार से नौ हजार तक होती है। पूर्व जिन्होंने इस कल्प को स्वीकार किया है उनकी भी कम से कम और अधिक से अधिक दो क्रोड से नौ करोड़ की संख्या होती है। पांच साधु के समूह से इस कल्प को स्वीकार किया जाता है।३०६
__ यथालन्द विधि : परिणाम, सामर्थ्य, प्रमाण, स्थापना, आचार, मार्गणा एवं यथालन्दक मासकल्प - इन्हें पांच के समूह में स्वीकार करते हुए शरीर के लिये आहार
और वसति का स्वीकार करते हैं। किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते, शरीर का संस्कार नहीं करते, उपसर्ग परीषहों को समभाव से सहन करते एवं धैर्यबल से हीन नहीं होते, रोगादि से उत्पन्न वेदनाओं का प्रतिकार नहीं करते। तपाराधना से थकने पर दूसरों का सहारा लेते, किन्तु वाचनादि नहीं देते। आठों प्रहर निद्रा नहीं लेते, एकाग्र चित्त से ध्यान मग्न रहते, श्मशान में ध्यान करते, आवश्यकादि क्रिया में सतत प्रयत्नशील रहते, दोनों समय उपकरणों की प्रतिलेखना करते, स्थानादि की आज्ञा लेकर निवास करते, दस प्रकार की समाचारी का पालन करते, अतिचार लगते ही 'मेरे दुष्कृत मिथ्या' हों, ऐसा बोल कर निवृत्त होते, संघ के साथ किसी भी प्रकार का लेन, देन, अनुपालना, विनयादि सह भोजन एवं वार्तालाप नहीं करते, सतत मौन की आराधना करते, आवश्यकता लगने पर एक व्यक्ति से बात करते। गोचरी के लिये दो गव्यूति से अधिक नहीं जाते, व्याधादि, सर्प, मृग आदि के सामने आने पर उन्हें दूर नहीं करते, आँख एवं पैर का कांटा नहीं निकालते, इस प्रकार दोनों प्रकार के यथालन्दक मुनि अपनी अपनी चर्या के अनुसार आचार संहिता का पालन करते हुए वस्त्रादिरहित एवं वस्त्रादिसहित होकर यथालन्दक साधना का पालन करते हैं।३०७
यथालन्दक मुनियों का क्षेत्रादि के अनुसार वर्णन करते हैं।३०४ क्षेत्र की अपेक्षा एक सौ सत्तर कर्मभूमि में यथालन्दक मुनि होते हैं। काल की अपेक्षा सर्वत्र होते हैं। चारित्र की दृष्टि से प्रथम दो प्रकार के चारित्र के धारक होते हैं। तीर्थ की दृष्टि से सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में होते हैं। तीस वर्ष गृहस्थावास और उन्नीस वर्ष का मुनि धर्म का पालन करते हैं। श्रत से नौ या दस पूर्व के धारी होते हैं। शुभ लेश्या वाले होते हैं। कुछ कम सात हाथ से लेकर पांच सौ धनुष ऊंचे होते हैं। काल की दृष्टि से एक अन्तर्मुहूर्त से लेकर कुछ कम पूर्व
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
१८०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org