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नहीं तो जिनकल्प अथवा स्थविरकल्प साधना पद्धति स्वीकार करते हैं। जो जिनकल्प साधना को स्वीकार करता है उसे यावत्कथित परिहारविशुद्ध साधना कहते हैं। जो स्थविरकल्प साधना की आराधना करता है वह इत्वर परिहारविशुद्ध साधक कहलाता
परिहारविशुद्धक मुनियों के चर्यादि का वर्णन "क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्रज्या, मुंडावण" आदि द्वारों के द्वार जिनकल्पिक साधकों के क्षेत्रादि के समान ही हैं।३०२ जहाँ-जहाँ विशेष महसूस हुआ है उसे नीचे दिया जा रहा है-३०२ क्षेत्र की दृष्टि से परिहार विशुद्धक मुनि का जन्म कल्प ग्रहण कर्मभूमि के भरत और ऐरावत क्षेत्र में ही होता है, अन्यत्र विदेहक्षेत्र में नहीं। देवादि द्वारा संहरण को छोड़कर वे अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं होते। काल द्वार की दृष्टि से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में ही होते हैं, नो अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी सुषमसुषमादि में नहीं होते। कल्प द्वार के अनुसार वे स्थितकल्प में ही होते हैं। प्रथम अथवा अंतिम तीर्थकर के तीर्थ में ही होते हैं। लिंग द्वार की दृष्टि से वे द्रव्य और भाव दोनों ही लिंगों से स्वीकार करते हैं। चारित्र द्वार की दृष्टि से सामायिक और छेदोपस्थापनीय अवस्था में स्वीकार करते हैं। प्रायश्चित्त की दृष्टि से परिहारविशुद्धक एक क्षण के लिये भी मानसिक व्यग्रता का सेवन करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। गणना की दृष्टि से दो प्रकार से वर्णन किया जाता है - गणप्रमाणतः और पुरुष प्रमाणतः। गणप्रमाण के जघन्य और उत्कृष्ट ऐसे दो भेद किये गये हैं। जघन्य में तीन गण, विशेषतः भाष्यकार की दृष्टि से जघन्य सत्तावीस माने गये हैं और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व तथा भाष्यकार के अनुसार सहस्रपृथक्त्व है। श्रुतानुसार वे नौ पूर्व एवं उत्कृष्ट दस पूर्व के पाठी होते हैं। व्यवहारानुसार आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-व्यवहारज्ञ होते हैं।
__ यथालन्द साधना पद्धति यह भी श्रमणों की विशिष्ट प्रकार की साधना है। यथालन्द शब्द दो शब्दों के योग से बना है। यथा का अर्थ है - यथा विधि अथवा सूत्रोक्त विधि के अनुसार, और लन्द का अर्थ है - काला जल से भीगी हुई हस्तरेखा के सूखने में जितना समय लगता है उतने समय से लेकर पांच रात्रिदिन के काल को सिद्धान्त की परिभाषा में लन्द कहते हैं।३०४ यथालन्दक मुनि साधना काल में इतना अल्प भी प्रमाद नहीं करते सतत अप्रमत्तावस्था में जागृत रहते हैं। लन्द शब्द के तीन भेद हैं-३०५ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। गीली हस्तरेखा के सूखने में जितना समय लगता है वह जघन्य काल है। उत्कृष्ट पाँच अहोरात्र। शेष मध्यम काल है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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