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________________ परिहार विशुद्ध साधना पद्धति परिहार विशुद्ध साधना और संयम (चारित्र) दोनों भी हैं। परिहार शब्द का अर्थ 'तप' है। परिहार विशुद्धिक संयम तपस्या की विशेष साधना पद्धति है। तप के द्वारा जिस चारित्र में विशेष शुद्धि होती है, उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं।२९७ इस साधना का प्रारंभ भी 'प्रव्रज्या सिक्खावय' आदि स्थविरकल्पिक साधना पद्धति के अनुसार ही होता है। इसके तीन अंग होते हैं।२९८ - परिहारक, अनुपरिहारक और कल्पस्थित। इस साधना पद्धति में विशिष्ट प्रकार के तप करने वाले को परिहारक कहा जाता है। परिहारक की सेवा करने वाले को अनुपरिहारक कहते हैं और वाचनाचार्य की जिम्मेदारी निभाने वाले को कल्पस्थित कहते हैं। आगम में परिहारक को निर्विष्ट मानक और अनुपरिहारक को निर्विष्टकायिक (निर्विशमानक) कहते हैं। परिहार विशुद्धक साधना का स्वरूप इस साधना पद्धति में नौ जनों का समूह होता है। उनमें से सर्वप्रथम चार जन विशिष्ट प्रकार की तपस्या करते हैं। ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतु में वे क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तपस्या करते हैं। विधि क्रमांक इस प्रकार है। ग्रीष्मऋतु में जघन्य एक उपवास (चतुर्थ भक्त), मध्यम दो उपवास और उत्कृष्ट तीन उपवास की आराधना करते हैं। शीतऋतु में जघन्य दो उपवास, मध्यम तीन उपवास और उत्कृष्ट चार उपवास की साधना करते हैं। अंतिम वर्षाऋतु में जघन्य तीन उपवास, मध्यम चार उपवास और उत्कृष्ट पाँच उपवास की आराधना करते हैं। इस क्रम से साधना करने वाले को अर्ध अपक्रान्ति साधना पद्धति का आराधक माना जाता है।२९९ परिहारक के बाद अनुपरिहारक भी इसी क्रम से तपाराधना करता है। तदनन्तर कल्पस्थित का नंबर आता है। इन सबके तपाराधना का कालमान छः-छः मास का है। कल्पस्थित मुनि अकेले ही परिहार विशुद्ध साधना स्वीकार करते हैं। परिहारक और अनुपरिहारक इन दोनों की आठ संख्या में से किसी एक को वाचनाचार्य बनाते हैं और शेष सात अनुपरिहारकत्व स्वीकार करते हैं। परिहारक की अनुपरिहारिक सेवा करते हैं। जब अनुपरिहारिक परिहार विशुद्ध साधना स्वीकार करते हैं तब परिहारक उनकी सेवा करते हैं। इन सब साधक के लिये यह छः-छः मास की साधना पद्धति है। कुल अठारह मास में यह साधना पूर्ण होती है। ये तीनों प्रकार के साधक पारणे में आयंबिल ही करते हैं। जब विशिष्ट साधना की जाती है तब ऊपर बताये हए क्रम से साधना करते हैं और जो अनुपरिहारिक तथा कल्पस्थित होते हैं, वे नित्य भोजी होते हैं। नित्य भोजन में एवं पारणे में आयंबिल की ही आराधना करते हैं। इस प्रकार परिहार विशुद्ध साधना का स्वरूप है।३०० । __ अठारह मास की साधना पूर्ण हो जाने पर वे पुनः परिहारक साधना प्रारंभ करते हैं, १७८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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