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________________ लिये कहें, ऐसे स्थानों में न रहें। भिक्षा के लिये तीसरे प्रहर में जाते हैं। भिक्षा चर्या जाने वाले मुनि सात पिण्डैषणाओं में से प्रथम दो को छोड़कर शेष पाँच एषणाओं से तीसरे प्रहर अपकृत भक्त - पान लेते हैं। मलादि के दोष उत्पन्न होने की संभावना से आचाम्ल नहीं करते। वे मासिकी आदि भिक्षु पडिमा तथा भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा पडिमा स्वीकार नहीं करते। मास कल्प की साधना में जहाँ रहते है, वहाँ उस गांव या नगर को छह भागों में विभक्त करके प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षार्थ जाते हैं। वे एक ही वसति में सात (जिनकल्पिक) से अधिक नहीं रहते। वे एक साथ रहने पर परस्पर संभाषण नहीं करते तथा भिक्षा के लिये एक वीथि में भी नहीं जाते। २९३ जिनकल्पिक मुनि के दो प्रकार की उपधि होती है। जो उपकरण को साधारणतया सब ऋतुओं में उपयोग में लेते हैं उन्हें ओघ उपधि कहते हैं और जो कभी - कभी विशेष रूप से उपयोग में लेते हैं उन्हें उपग्रह उपधि कहते हैं। रजोहरण और मुखवस्त्रिका सहित स्थविरकल्पी मुनि की भाँति जिनकल्पिक मुनि के द्वादशविध उपधि होती है। उपधि के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट रूप से तीन प्रकार होते हैं । २९४ दिगम्बर देवसेनाचार्य के २९५ कथनानुसार “जिन कल्प में स्थित श्रमण बाह्य, आभ्यन्तर ग्रन्थियों से रहित, निस्पृह और वाग्गुप्त होते हैं। वे जिन भगवान की तरह घूमते रहते हैं। आँख या पैरों में गये हुए कांटे को स्वयं नहीं निकालते, दूसरा निकालता है; तो मौन रहते हैं। ग्यारह अंग के ज्ञाता होते हैं। अकेले घूमते हैं। सदा धर्म ध्यान शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। कषायों के त्यागी, मौनी और कन्दरा में रहते हैं। वामदेव के कथनानुसार २९६ जिनकल्पी शुद्ध सम्यक्त्वयुक्त इन्द्रिय विजेता, कषायविजेता, एकादश श्रुत को एक अक्षर की तरह जानने वाले पर्वत, गुफा, जंगल, नदी के तट आदि स्थानों में रहने वाले होते हैं। वर्षाकाल में जीवाकुल होने के कारण छः मास तक निस्पृह और निराहार कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहते हैं। सतत धर्मध्यान में लीन रहते हैं। निरन्तर अनियतवास करते हैं। तप के कारण उन्हें विक्रिया, आहारक, चारण, क्षीरास्वव आदि लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । किन्तु विरागी होने के कारण उनका सेवन नहीं करते। जिन कल्पी श्रमण की साधना पद्धति अत्यन्त कठोर है। वे अपनी साधना के बल से सूक्ष्म संपरा और यथाख्यात चारित्र प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु यह सारी भूमिका उपशम श्रेणी द्वारा प्राप्त करते हैं। क्षपक श्रेणी वे करते ही नहीं; जिसके कारण उन्हें केवल ज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति नहीं होती। उन्हें क्षपक श्रेणी क्यों नहीं होती यह चिन्तनीय प्रश्न जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only १७७ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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