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अनुसार एक समय में कल्प स्वीकार करने वालों की उत्कृष्ट संख्या शतपृथक्त्व (९००) और पूर्व स्वीकृत के अनुसार यह संख्या सहस्रपृथक्त्व (९०००) ही होती है। पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्टतः इतने ही, जिनकल्पी प्राप्त हो सकते हैं। अभिग्रह द्वार के अनुसार वे अल्पकालिक कोई भी अभिग्रह स्वीकार नहीं कर सकते। उनके जिनकल्प अभिग्रह ही जीवनपर्यन्त रहता है। उसमें गोचर आदि प्रतिनियत और निरपवाद होते हैं। उनके लिये जिनकल्प का पालन ही परम विशुद्धि का स्थान है। प्रव्रज्या और मुंडापना द्वार के अनुसार वे किसी को दीक्षित नहीं कर सकते, मुंडित नहीं कर सकते। यदि कोई दीक्षा लेना चाहे तो उपदेश दे सकते हैं और बाद में उसे संविग्न गीतार्थ साधु के पास भेज देते हैं। प्रायश्चित्त द्वारानुसार जिनकल्पिक मुनि को मानसिक सूक्ष्म अतिचार के लिए भी जघन्यतः चतुर्गुरक मासिक प्रायश्चित्त दिया जाता है। कारण द्वार के अनुसार वे किसी भी प्रकार का अपवाद सेवन नहीं करते। निष्प्रतिकर्म द्वार के अनुसार शरीर पर किसी भी प्रकार का प्रतिकर्म नहीं करते। आंख कानादि का मैल भी नहीं निकालते, न ही पैर का कांटा निकालते हैं। वे किसी भी प्रकार की चिकित्सा भी नहीं करते। भक्त और पंथद्वार के अनुसार वे तीसरे प्रहर में ही गोचरी और विहार करते हैं। स्थितिद्वार के अनुसार जंघाबल के क्षीण होने पर वे एक ही स्थान पर रहते हैं, किन्तु किसी प्रकार का दोष सेवन नहीं करते। सामाचारीद्वार के अनुसार दस समाचारी में से आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा और उपसंपद् इन पाँच का ही सेवन करते हैं।२९२
श्रुतादि द्वार के अनुसार जिनकल्पी जघन्यतः प्रत्याख्यान नामक नौवे पूर्व की तीसरी आचार वस्तु के ज्ञाता तथा उत्कृष्टतः अपूर्ण दशपूर्वधर हैं। संपूर्ण दशपूर्वधर जिनकल्प अवस्था प्राप्त नहीं कर सकते। दिगम्बर परम्परा में कुछ भिन्नता है। उनके कथनानुसार वे ग्यारह अंगों के धारक होते हैं। जिनकल्पी मुनि वज्रऋषभनाराच संहनन वाले ही होते हैं। उन्हें उपसर्ग हो ही ऐसा कोई नियम नहीं। यदि उपसर्ग आये तो समभाव से सहन करते हैं। रोगादि के उत्पन्न होने पर समभाव से सहन करते हैं। उन्हें दो प्रकार की वेदनाएं होती हैं-१) आभ्युपगमिकी (लूंचन आतापनादि से उत्पन्न) और २)
औपक्रमिकी (अवस्था एवं कर्मोदय से उत्पन्न)। वे अकेले ही होते हैं। उनके लिये स्थंडिल भूमि की विशेष विधि होती है। वे उच्चार पासवण (प्रश्रवण) का उत्सर्ग विजन अथवा शून्य स्थान में करते हैं। जैसा स्थान मिले उसी में वे रहते हैं। साधु निमित्त लीपी पुती वसति में नहीं रहते। बिलों को धूलादि से नहीं ढकते, पशुओं के द्वारा तोड़े मोड़े जाने पर भी वसति की रक्षा नहीं करते, द्वार बंद नहीं करते, अर्गला नहीं लगाते। वसति की यातना करने पर गृहस्वामी के अनेक प्रश्न पूछे जाने पर वहाँ न रहें (निमंत्रित प्रश्र) जिस वसति में बलि दी जाती हो, किसी भी प्रकार की अग्नि जलती हो, मकान की रक्षा करने के
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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