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________________ बाद में क्रमशः तीर्थकर, गणधर, चतुर्दशपूर्वधर, दसपूर्वधर के पास जिनकल्प स्वीकार करते हैं। यदि इन में से कोई भी न हो तो वट, अश्वत्थ, अशोकवृक्ष इन वृक्षों के समीप जाकर स्वयं ही जिनकल्प स्वीकार करते हैं। जिनकल्प स्वीकार करने के पहले वे अपने उत्तराधिकारी को हितशिक्षा देते हैं कि "गण में बाल वृद्ध आदि सबकी अच्छी सेवा करना, समय आने पर तुम भी कल्प स्वीकार करना, ज्येष्ठ मुनि से विनयादि करना, स्वाध्याय, ध्यान, अध्ययन आदि में लीन रहना, अल्प श्रुत और बहुश्रुत मुनि का तिरस्कार नहीं करना, गण के अधिकारी की आज्ञानुसार चलना।" मुनिगण को हितशिक्षा एवं क्षमापना आदि करने के बाद जिनकल्प स्वीकार करके वे अकेले ही आगे बढ़ जाते हैं।२९० क्षेत्र काल आदि द्वारों का विचार ः स्थविरकल्पिकों की भाँति ही जिनकल्प मुनियों के भी क्षेत्रादि द्वारों द्वारा उनके चर्यादि का विचार किया जाता है, जैसे कि २९१ क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्रज्या, मुंडापन, कारण, निष्प्रतिकर्म, भक्त, पंथ, स्थिति, सामाचारी एवं श्रुत, संहनन, उपसर्ग, आतंक, वेदना, कतिजन, स्थंडिल, वसति, कियच्चिरं, उच्चारच्चैव, प्रश्रवण, अवकाश, तृणफलक, संरक्षणता, संस्थापनता, प्राभृतिका, अग्नि, दीप, अवधान, वत्त्ययकतिजना, भिक्षाचर्या, पानक, लेपालेप, अलेप, आचाम्ल (आयंबिल), प्रतिमा और जिनकल्प। इनमें से कई द्वारों का स्थविरकल्प साधना पद्धति में वर्णन कर चुके हैं। जहाँ कहीं नवीनता महसूस होगी तो उल्लेख करेंगे, वरना नहीं। काल द्वार के अनुसार अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हो तो उनका जन्म तीसरे चौथे आरे में होता है और जिनकल्प का स्वीकार तीसरे चौथे और पांचवें आरे में हो सकता है।यदि उत्सर्पिणी काल में उत्पन्न हुए हों तो उनका जन्म दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में होता है ओर जिनकल्प का स्वीकार तीसरे चौथे आरे में किया जाता है। संहरण करने पर देवकुरु आदि सभी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। चारित्र द्वारानुसार सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र (संयम) में ही वर्तमान अनि जिनकल्प स्वीकार कर सकते हैं। तदनन्तर वे सूक्ष्मसंपरायादि चारित्र में भी जा सकते हैं। पर्यायद्वार के अनुसार जघन्यतः उनतीस वर्ष की अवस्था में (९ वर्ष गृहस्थावास के और २० वर्ष संयम पर्याय के) और उत्कृष्टतः गृहस्थ व साधुपर्याय की कुछ न्यून करोड पूर्व में इसे स्वीकार कर सकते हैं। जिनकल्प स्वीकार करने पर वे नये श्रुत का अध्ययन नहीं करते किन्तु पहले पढ़े हुए श्रुत का स्वाध्याय करते हैं। वेद द्वारानुसार स्त्रीवेद को छोड़कर पुरुषवेद और असंक्लिष्ट नपुंसक वेद वाले व्यक्ति ही इस कल्प को स्वीकार करते हैं। स्वीकार की प्रक्रिया होने के बाद वे सवेद ओर अवेद भी हो सकते हैं। यहां अवेद का अर्थ उपशान्त वेद से है। गणनाद्वार के जैन साधना पद्धति में ध्यान योग १७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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