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है, अथवा राग-द्वेष, मोहादि कषायों की प्रबलता और विषादि का प्रयोग होने पर होती है। जैन धर्मानुसार कथित संलेखना व्रत में समाधिमरण से मरनेवाले साधक में रागादि परिणाम और मोहादि भाव होते ही नहीं, वे तो मृत्यु का महोत्सव करते हैं। फिर बताइए, आत्महत्या कैसे हो सकती है? समाधिमरण में सारी चिंताएं नष्ट हो जाती हैं, विभावदशा से हटकर स्वभावदशा में रमण करते हुए स्वेच्छा से मरण को स्वीकार करते हैं, मोक्ष की भी अभिलाषा इसमें नहीं की जाती है। ऐसी यह संलेखना स्वतंत्र साधना है, आत्महत्या नहीं।२८७
जिनकल्प साधना पद्धति विशेष साधना के लिए जो संघ से अलग होकर रहते हैं, उसकी आचार संहिता को जिनकल्प स्थिति कहते हैं।२८८ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक इन पाँचों में से कोई भी जिनकल्प साधना स्वीकार करते हैं। साधना स्वीकार करने के बाद वे अपने आपको पाँच तुलाओं में तोलते हैं और भावनायोग का आलम्बन लेकर आगे बढ़ते हैं। कन्दर्पा, दैवकिल्विषी, अभियोगी, आसुरी और आभियोगिक इन पाँच प्रकार की अप्रशस्त भावना का त्याग करके शुभ (प्रशस्त) भावनाओं में रमण करते हुए सर्व प्रथम तप तुला से स्व का निरीक्षण करते हैं। छह मास तक देवादि के उपसर्ग से आहारादि के न मिलने पर भी पीड़ा का अनुभव नहीं करते। सत्त्व तुला से भय निवारण करते हैं। रात्रि में कायोत्सर्ग करना, उपाश्रय के बाहर कायोत्सर्ग करना, चौक में कायोत्सर्ग करना, शून्य गृह में कायोत्सर्ग करना और श्मशान में कायोत्सर्ग करना। इन पांच स्थान पर कायोत्सर्ग करके सत्त्व भावना से स्व की परीक्षा करते हैं। सूत्रतुला (भावना) से रात्रि अथवा दिन के उच्छ्वास, प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त आदि को अच्छी तरह जानते हैं। एकत्व तुला (एकत्व भावना) से अभेदज्ञान द्वारा शरीर और आत्मा को भिन्न मानते हैं। अंत में बल भावना से शारीरिक, मानसिक बल की जानकारी लेकर जिनकल्प साधना में आगे बढ़ते हैं। इसमें शारीरिक बल की प्रबलता होती है, जिसके कारण उपसर्गों को जीत सकते हैं। इस प्रकार जिनकल्पी मुनि पंचतुलाओं (पंच भावनाओं) से अपने आपको तोलते हैं। २८९
जिनकल्प विधि : इस कल्प को स्वीकार करने वाले के लिए पांच तुलायें अनिवार्य नहीं हैं। जिनकल्प स्वीकार करने के पहले संघ को एकत्रित करते हैं। यदि संघ न हो तो अपने गण को एकत्रित करके गणधर को स्थापित करने पर क्षमापना आदि करते हैं।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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