SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २) इंगित मरण का स्वरूप : २७९ इसकी विधि भी भक्त परिज्ञा मरण के समान ही है। इस मरण को विशिष्ट संहनन वाला एवं गीतार्थ मुनि (साधक) ही ग्रहण कर सकता है। पहले मरण की अपेक्षा इसमें यह विशेषता है कि नियमतः चारों आहार का त्याग करना होता है और नियमित प्रदेश में संस्तारक पर हलन चलन की छूट रखकर, भूमि को देखकर आलोचना प्रतिक्रमण करके महाव्रतों को पुनः स्वीकार करके शयन करना होता है। यह साधक त्रिकरण और त्रियोग से स्वावलंबी होता है। दूसरों की सेवा नहीं लेता है। सब क्रिया अपने आप ही करता है जैसे कि करवट बदलना, नीहार भूमि जाना आदि । संस्तारक पर सोया हुआ मुनि मेरू के समान निश्चल और दृढपरिणामी होने के कारण आत्मचिन्तन में रहता है। यदि पूर्व कर्मों के फलस्वरूप शरीर में वेदना अथवा परीषह उपसर्ग आने पर स्वकृत कर्मों का फल समझकर सतत स्वचिन्तन (आत्मस्वरूप ) में लीन रहने के कारण शीघ्र सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है। ३) पादपोपगमन मरण का स्वरूप : २८० दोनों प्रकार के पंडित मरण की अपेक्षा यह मरण विशेष प्रयत्न साध्य है। इसमें प्रबलतर पुरुषार्थ की अपेक्षा होती है। इस मरण को अंगीकार करने वाला साधक अपने आप को देखे हुए अचित्त भूमि या अचित्त काष्ठ पर स्थापित करता है। चारों प्रकार के आहार का त्याग करके पाँच महाव्रतों का पुनः आरोपन करके आलोचना, प्रतिक्रमण, क्षमापना आदि करने के बाद गुरु समक्ष जिस स्थिति में है उसी स्थिति में निश्चल मेरु की भाँति स्थिर रहने की प्रतिज्ञा करता है। इस मरण की यह विशेषता है कि इसमें हलन चलन क्रिया का भी निषेध है। वृक्ष की भाँति स्थिर रहना ही इस मरण की विशेषता है। इस मरण का नाम ही पादपोपगमन मरण है। मरण पंडित मरण की साधना करने वाले साधक इहलोक, परलोक, जीवन, अथवा कामभोगों की इच्छा न करें। यदि देवता या देवांगना दिव्य रूप बनाकर क्रमशः परीक्षा अथवा कामभोग की याचना करें तो विचलित न हों; बल्कि अपनी अंतिम साधना में स्थिर रहें। पंडित मरण उपसर्गों और कर्मशत्रुओं को नाश करने का साधन है । २८१ इसलिए तो इसे 'अपश्चिममारणान्तिकी संल्लेखना' के नाम से घोषित किया जाता है। मरणान्त के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यों की सम्यक् आलोचना करके शरीर और कषाय को क्षीण करने के निमित्त की जानेवाली सबसे अंतिम तपस्या है। २८२ पंडित मरण के तीनों प्रकारों में अंतर भक्त परिज्ञा मरण में तीन या चार प्रकार का आहार का त्याग कहा है। यह सप्रतिकर्म है - दूसरे का सहारा लिया जाता है। इंगित मरण में चारों ही प्रकार के आहार का त्याग कहा है। नियमित प्रदेश में ही हलन-चलन की क्रिया की जाती है। दूसरों की सेवा नहीं ली जाती। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व १७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy